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परमाणु अप्रसार -अवश्यकता तथा प्रयास (Nuclear non-proliferation )

प्रस्तावना

वर्तमान युग परमाणु युग कहलाता है, जिसमें परमाणु शस्त्रों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है। परमाणु शस्त्रों की इस बढ़ती संख्या को परमाणु प्रसार कहते है।

परमाणु युग का आरम्भ 16 जुलाई, 1945 को माना जाता है जब अमरीका द्वारा प्रथम परमाणु परीक्षण किया गया। 6 अगस्त, 1945 को जापान के शहर हिरोशिमा और 9 अगस्त, 1945 को नागासाकी पर परमाणु बम अमरीका द्वारा गिराये गये जिनसे लगभग 35 लाख लोग मारे गये अमेरिका के बाद रूस ने भी अणु बम का विकास कर लिया। इसके पश्चात् ब्रिटेन, फ्रांस एवं साम्यवादी चीन भी अणुशक्ति देश बन गए। इसके अतिरिक्त भारत, इजराइल, पाकिस्तान, जर्मनी, आस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका तथा ब्राजील इत्यादि ऐसे ऐश हैं जिनके पास अणुबम विकसित करने की पर्याप्त क्षमता है तथा इन देशों ने भी अणुबम का निर्माण कर लिया है। परमाणु शस्त्र विश्व को अनेक बार नष्ट करने की क्षमता रखते है। मैम्स लर्नर ने परमाणु युग को “The Age of Overkill" (अति विध्वंसकारी युग) कहा है।

वर्तमान में विश्व में लगभग 60,000 परमाणु शस्त्र तैयार हैं जिससे समस्त विश्व को 12 बार नष्ट किया जा सकता है। फिर भी इनकी होड़ निरन्तर जारी है। इन शस्त्रों का पृथ्वी से संचालन करने के स्थान पर अन्तरिक्ष से संचालन करने के प्रयास चल रहे हैं। इसके लिए अनेक सैन्य उपग्रह अन्तरिक्ष में छोड़े हैं। परमाणु विस्फोट सामग्री कितनी अधिक मात्रा में विद्यमान है ? इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि यदि उसे विश्व के सभी व्यक्तियों में समान मात्रा में बाँटें तो प्रति व्यक्ति के हिस्से में 10 टन आयेगी। अब तक किये गये नाभिकीय परीक्षणों से जितनी रेडियोधर्मिता फैल चुकी है वह अन्ततः मानव जाति के लिए घातक सिद्ध होगी। परमाणु शस्त्रों के रूप में सम्पूर्ण मानव जाति के अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है। यदि परमाणु शक्ति का प्रयोग सृजन करने के लिए लगाया जाये तो इससे बिजली उत्पादन, परिवहन, दूरसंचार और चिकित्सा में यह शक्ति वरदान सिद्ध होगी।

परमाणु अप्रसार से तात्पर्य

परमाणु अप्रसार से तात्पर्य वर्तमान समाय में विद्यमान परमाणु शस्त्रों के प्रसार को रोकने से है। अर्थात् परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र अपने परमाणु आयुधों की संख्या में वृद्धि नहीं करेंगे तथा परमाणु शक्ति विहीन राष्ट्र परमाणु आयुधों का निर्माण नहीं करेंगे।

परमाणु अप्रसार,परमाणु शस्त्रों के क्षैतिजिय (Horizontal) विस्तार पर अंकुश लगाता है। इसके अन्तर्गत परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र गैर परमाणु शक्ति वाले देशों को परमाणु अस्त्र प्राप्त करवाने में सहायता नहीं करेंगे तथा गैर परमाणु शक्ति सम्पनन देश परमाणु अस्त्र प्राप्त भी नहीं कर सकते। 1968 की परमाणु अप्रसार संधि इसी नीति पर आधारित थी।


निःशस्त्रीकरण की आवश्यकता


निःशस्त्रीकरण निम्न कारणों से आवश्यक बताया गया है

1. शान्ति की स्थापना - आइनिस क्लॉड का मत है, शस्त्र-सज्जा राजमर्मज्ञों की युद्ध लड़ने के लिए लालायित कर देती है। इस प्रकार शस्त्रीकरण से युद्ध की सम्भावनाएँ तथा प्रतिद्वन्द्विता बढ़ती है। अतः शस्त्रास्त्रों पर प्रतिबन्ध ही शान्ति स्थापना का एकमात्र साधन है। शस्त्रीकरण के कारण राष्ट्रों के सम्बन्ध अविश्वास तथा भय से आच्छादित रहते हैं, जिससे प्रतिद्वन्द्विता को प्रोत्साहन मिलता है। कोहन का मत है, शस्त्रीकरण राष्ट्रों के बीच भय और मनमुटावों की स्थिति पैदा करता है। निःशस्त्रीकरण द्वारा भय और मनमुटावों को कम करके शान्तिपूर्ण समझौतों की प्रक्रिया को सुविधापूर्ण एवं शक्तिशाली बनाया जा सकता है।

2. शस्त्रीकरण से अन्तर्राष्ट्रीय तनाव का उत्पन्न होना-
राष्ट्रों में शस्त्र निर्माण की होड़ अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा भंग करती है। इससे अन्तर्राष्ट्रीय तनाव बढ़ता है। अतः अन्तर्राष्ट्रीय तनाव में कमी लाने के लिए निरस्त्रीकरण अत्यन्त आवश्यक है।

3. आर्थिक विकास निःशस्त्रीकरण आर्थिक विकास को तीव्र करने के लिए भी आवश्यक समझा जाने लगा है। शस्त्रीकरण के अभाव में आर्थिक साधनों को ऐसे कार्यों में लगाया जा सकता है, जिनसे कि लोगों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाया जा सके।

4. नैतिक लाभ युद्ध को अनैतिक कार्य माना गया है और निःशस्त्रीकरण से युद्ध का विरोध होता है. इसलिए शस्त्रीकरण भी अनैतिक माना गया है। नैतिक पक्ष के समर्थकों का कहना है कि इकतरफा निःशस्त्रीकरण आक्रमण के विरुद्ध गारण्टी है जिसकी घोषणा करने वाले राष्ट्र कभी पराजित नहीं हो सकते हैं। आदर्शात्मक दृष्टिकोण से तो इस नैतिक आधार को मान लिया जाता है, लेकिन यथार्थवादी दृष्टिकोण से इसका कोई विशेष महत्त्व नहीं है। आज विश्व में केवल जापान अणु शस्त्रों के निर्माण सम्बन्धी प्रतिबन्ध की नीति पर जमा हुआ है, और नैतिक पक्ष में विश्वास करता है।

5. आणविक संकट - द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् आणविक हथियारों के उत्पादन ने इस समस्या को और अधिक जटिल बना दिया हैं। आणविक आयुधों की छाया में विश्व का भविष्य अनिश्चित बना हुआ है, इसलिए निःशस्त्रीकरण की दिशा में विचार अब और अधिक गम्भीरता से किया जाने लगा है। यदि मानव जाति ने इन आणविक अस्त्र-शस्त्रों का विनाश नहीं किया तो ये अस्त्र मानव जाति का विनाश कर देंगे। आज परमाणु अस्त्रों की सहायक शक्ति से परमाणु सम्पन्न राष्ट्र भी भयभीत है।
फिलिप नोजल बेकर के शब्दों में, "आधुनिक शस्त्रों में प्रतिद्वन्द्विता मानवता के लिए मौत का ऐसा सन्देश बन गयी है जिसकी भयानकता किसी भाषा में भी व्यक्त नहीं की जा सकती है। केवल निरस्त्रीकरण सन्धि के द्वारा ही इसे रोका जा सकता है।

6. राष्ट्रीय अस्तित्व राष्ट्र के हित की दृष्टि से भी निःशस्त्रीकरण की मांग की जाती है। छोटे-छोटे राष्ट्र जिनके पास कम हथियार हैं, उन्हें शक्तिशाली बनाने के लिए बहुत प्रयास और दबाव महसूस करना पड़ता है। बड़े राष्ट्रों को भी अपने अस्तित्व एवं गौरव को बनाए रखने के

परमाणु अप्रसार हेतु किये गए प्रयास

परमाणु अप्रसार हेतु संयुक्त राष्ट्र संघ व अन्य संस्थाओं द्वारा अनेक प्रयास किय, जिनमें निम्नलिखित हैं

1.परमाणु ऊर्जा आयोग- संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा परमाणु प्रसार के क्षेत्र में पहला प्रयास महासभा द्वारा 1946 में एक प्रस्ताव पारित कर परमाणु ऊर्जा आयोग (Nuclear Energy Commission) की स्थापना था। इस आयोग को शान्तिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परमाणु ऊर्जा के नियन्त्रण के बारे में उपयोगी सुझाव देने को कहा गया। इसने अपनी रिपोर्ट में परमाणु ऊर्जा के लिए एक प्रभावशाली अन्तर्राष्ट्रीय नियन्त्रण व्यवस्था की सिफारिश की सोवयित संघ ने इसे मानने से इन्कार कर दिया। परिणामस्वरूप फरवरी, 1947 में संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् ने एक प्रस्ताव पारित कर परम्परागत शस्त्रों सम्बन्धी आयोग की स्थापना की। इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जायेगा कि इन दोनों आयोगों को असफलता हाथ लगी, क्योंकि उनके सुझावों और सिफारिशों पर अमरीका और सोवियत संघ में मतभेद बने रहे।

2. निशस्त्रीकरण आयोग - अक्टूबर, 1950 और उसके बाद अमरीकी राष्ट्रपति टूमेन ने संयुक्त राष्ट्र संघ में सुझाव रखा कि परमाणु ऊर्जा आयोग तथा परम्परागत शस्त्र आयोग के कार्यों को मिला दिया जाये। अन्ततः 11 जनवरी, 1952 को महासभा ने दोनों आयोग मिलाकर एक निशस्त्रीकरण आयोग (Disarmament Commission) की स्थापना की। इस आयोग के सदस्यों की संख्या 13 रखी गयी जिसमें 5 सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य, छः अस्थायी सदस्य तथा कनाडा को सम्मिलित किया गया। इस आयोग ने शस्त्रास्त्रों एवं सैनिक दस्तों की कमी, निशस्त्रीकरण समझौते, शस्त्र सूची और सत्यापन आदि जैसे कई निशस्त्रीकरण प्रस्ताव पेश किए, किन्तु विश्व राष्ट्रों का उनके बारे में नकारात्मके रूख रहा। इस कारण यह आयोग भी निशस्त्रीकरण प्रयास में असफल ही रहा।

3. शान्ति के लिए परमाणु योजना-दिसम्बर 1953 मे अमरीकी राष्ट्रपति आइनजहावर ने शान्ति के लिए परमाणु योजना (Atom for Peace Plan) का प्रस्ताव रखा। इसका प्रमुख उद्देश्य परमाणु ऊर्जा का शान्तिपूर्ण उपयोग था इस योजना में परमाणु शक्तियों से इसका पालन करने को कहा गया, किन्तु सोवियत संघ द्वारा इसके विरोध के कारण अमरीकी राष्ट्रपति का यह प्रस्ताव निष्फल हो गया। सोवयित संघ का मानना था कि शान्ति के लिए परमाणु ऊर्जा योजना के पहले अस्त्रों के निषेध पर समझौता किया जाये।

4. परमाणु परीक्षण पर प्रतिबन्ध - जेनेवा सम्मेलन की असफलता के बावजूद परमाणु परीक्षण पर प्रतिबन्ध (Nuclear Test Ban) के बारे में वार्ता चलती रही। अक्टूबर, 1958 से 3 अप्रैल, 1961 तक चले जेनेवा सम्मेलन के बाद तीन विश्व शक्तियाँ ग्रेट ब्रिटेन, अमरीका और सोवियत संघ में इस बात पर सहमत हुई, कि बाह्य अन्तरिक्ष महासागर तथा भूमि में सभी प्रकारे के परमाणु परीक्षण बन्द कर दिये जाने चाहिए। इस प्रकार की संधि को अन्तर्राष्ट्रीय स्टाफ के सख्त नियन्त्रण एवं निरीक्षण (Control and Supervision ) के अन्तर्गत लागू किया जाना था। किन्तु यह प्रयास सोवियत संघ के प्रतिकूल रूख के कारण असफल हो गया। उसने माँग की कि एक निष्पक्ष प्रशासक को तीन सदस्यों (एक तटस्थ देशों से एक पश्चिमी खेमे से तथा एक सोवियत खेमे से) के आयोग से प्रतिस्थापित (Replace) किया जाये। इससे परमाणु परीक्षण पर प्रतिबन्ध के बारे में आगे का परामर्श रूक गया और इस बारे में किसी भी प्रकार का समझौता न हो सका।

5. दस राष्ट्रों का निशस्त्रीकरण सम्मेलन- 1960 में जेनेवा में निशस्त्रीकरण सम्मेलन आयोजित हुआ जिसमें दस राष्ट्रों ने भाग लिया। पश्चिमी खेमे से अमरीका, ग्रेट ब्रिटेन, कनाडा, फ्रांस एवं इटली तथा साम्यवादी खेमे से सोवियत संघ, युगोस्लाविया, पोलैण्ड, रूमानिया एवं बुल्गारिया सम्मेलन में उपस्थित थे। दोनों खेमों की ओर से परमाणु हथियारों पर रोक लगाने, राकेट नष्ट करने तथा सैनिक संख्या घटाने जैसे अनेक प्रकार के प्रस्ताव प्रस्तुत किये गये। किन्तु सम्मेलन का अन्त बहुत निराशापूर्ण वातावरण में हुआ, क्योंकि अन्तिम समय में सोवियत संघ ने अपने खेमे के अन्य देशों के साथ सम्मेलन से बहिष्कार कर दिया।

6.18 राष्ट्रों का निशस्त्रीकरण सम्मेलन-1962 में एक बार पुनः निशस्त्रीकरण सम्मेलन हुआ। इसमें भाग लेने वाले 17 देश थे अमरीका, ग्रेट ब्रिटेन, कनाडा, इटली, सोवियत संघ, रूमानिया, बुल्गारिया, पॉलैंड, चेकोस्लोवाकिया, ब्राजील, भारत, बर्मा, संयुक्त अरब अमीरात, मैक्सिको, इथियोपिया, स्वीडन तथा नाइजीरिया। हालांकि इसमें 17 राष्ट्रों ने भाग लिया। किन्तु इसे 18 राष्ट्रों का निःशस्त्रीकरण सम्मेलन कहने का करण यह है कि अट्ठारहवें देश फ्रांस ने इसका बहिष्कार किया। सम्मेलन में अमरीका ने प्रमुख परमाणु शस्त्रास्त्रों में 30 प्रतिशत कटौती का प्रस्ताव पेश किया। सोवियत संघ ने सामान्य और पूर्ण निःशस्त्रीकरण का प्रस्ताव रखा, जिसके तहत तीन चरणों में सभी विदेशी सैनिक अड्डों तथा परमाणु अस्त्रों ने वाहक-साधनों के उन्मूलन की व्यवस्था की तटस्थ देशों ने परमाणु विस्फोट पर रिपोर्ट देने के लिए वैज्ञानिकों के एक अन्तर्राष्ट्रीय आयोग की स्थापना का प्रस्ताव रखा इस सम्मेलन के भी कोई लाभकारी नतीजे साम नहीं आये।

7. अणु परीक्षण पर प्रतिबन्ध (Partial Test Ban Treaty PBT or Moscow test Ban Treaty)- वायुमण्डल में अणुशक्ति परीक्षण पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए सन्धि पर अमरीका, सोवियत संघ और ब्रिटेन के विदेश मन्त्रियों ने संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचित कथांट के समक्ष 5 अगस्त, 1963 को हस्ताक्षर किये फ्रांस और चीन इसमें सम्मिलित नहीं हुए। इस सन्धि में पाँच धाराएँ निम्न प्रकार थीं

  • क . तीनों राष्ट्रों द्वारा संकल्प किया गया कि वे अपने अधिकार क्षेत्र और नियन्त्रण में विद्यमान किसी भी प्रदेश के वायुमण्डल में इसकी सीमाओं में बाह्य अन्तरिक्ष में प्रादेशिक महासागरों के जल में कोई भीआण्विक विस्फोट नहीं करेंगे।

  • ख . इस सन्धि में संशोधन का प्रस्ताव किसी भी राष्ट्र की सरकार द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है। यदि हस्ताक्षरकर्ता राष्ट्रों में से 1/3 राष्ट्र प्रस्ताव के पक्ष में हो तो संशोधन पर विचार किया जा सकता है।

  • ग . इस सन्धि पर कोई भी देश हस्ताक्षर कर सकता है। इसके लिए यह व्यवस्था है कि हस्ताक्षरकर्ता देश इस सन्धि पर अपनी संसद या राष्ट्रीय परिषद् का समर्थन प्राप्त करेगा और इस समर्थन को सोवियत संघ अमरीका व ग्रेट ब्रिटेन के पास जमा कराना पड़ेगा

  • घ. यह सन्धि असीमित समय के लिए है। हस्ताक्षरकर्ता देश 3 माह पूर्व नोटिस देकर इस सन्धि से हटसकता है।

  • . इस सन्धि के अंग्रेजी व रूसी भाषा के दोनों रूप समान रूप से प्रामाणिक समझे जायेंगे।

इस सन्धि में भूमिगत अणु परीक्षणों को सम्मिलित नहीं किया गया। इस सन्धि का महत्त्व बताते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव ऊथांट ने कहा कि परीक्षण प्रतिबन्ध की सन्धि यद्यपि तीन दशाओं तक सीमित है एवं निःशस्त्रीकरण की मुख्य समस्या से मिलती जुलती है, परन्तु इसके अतिरिक्त भी वह अपने आप में एक प्रमुख उद्देश्य है। इसके अधिक विस्फोटों से उत्पन्न हुई रेडियो क्रियाशील धूल के खतरे से भी मानवता को बचाने का उद्देश्य सीधी तरह से पूरा हो जाता है। इसके अतिरिक्त आण्विक शस्त्रों पर रोक तथा महाविनाश के नये शस्त्रों के विकास पर प्रतिबन्ध लगाने में सहायता मिलेंगी एवं इस तरह शस्त्रों की होड़ को कम किया जा सकेगा। इस सन्धि से भूमिगत परीक्षणों पर प्रतिबन्ध सहित एक विस्तृत सन्धि करने का मार्ग उपलब्ध हो सकेगा।

8. परमाणु अप्रसार सन्धि (Nuclear Non-Proliferation Treaty)- दुनिया में हथियारों की होड़ सीमित करने तथा निशस्त्रीकरण के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करने में इस सन्धि को महत्वपूर्ण माना जा सकता है। नवम्बर, 1967 में संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा की राजनीतिक समिति ने परमाणु आयुधों के निर्माण एवं प्रसार पर रोक लगाने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया। इसमें कहा गया कि परमाणु हथियार विहीन राष्ट्र परमाणु अस्त्रों का निर्माण नहीं करें और परमाणु आयुध सम्पन्न राष्ट्र इसका निर्माण बन्द करें। इसको सन्धि के मसविदे का रूप देने के लिए निशस्त्रीकरण आयोग को प्रस्तुत किया गया। इस आयोग द्वारा तैयार सन्धि का मसविदा महासभा ने 13 जून, 1968 को स्वीकार कर लिया तथा सदस्य देशों को इस पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा गया अमरीका और सोवियत संघ जैसे महत्वपूर्ण देशों सहित 40 देशों का अनुसमर्थन मिलने पर इस सन्धि को 5 मार्च, 1970 को लागू कर दिया गया। इस सन्धि की प्रमुख व्यवस्थाएँ निम्नांकित है :

  • क . परमाणु हथियार सम्पन्न राष्ट्र परमाणु आयुध-विहीन देशों को परमाणु अस्त्र प्राप्त करने में किसी प्रकार की सहायता नहीं देंगे;

  • ख . हस्ताक्षरकर्ता परमाणु अस्त्र विहीन राष्ट्र परमाणु हथियार बनाने का कोई प्रयास नहीं करेंगे;

  • ग . हस्ताक्षरकर्ता देशों को असैनिक कार्यों के लिए परमाणु ऊर्जा के विकास की पूरी छूट रहेगी। अर्थात् वे परमाणु ऊर्जा का शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए उपयोग कर सकेंगे, और

  • घ . परमाणु अस्त्रों के परीक्षण पर रोक लगाने की अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था हो इसके लिए अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेन्सी को अधिकार दिया गया। साथ ही कहा गया कि गैर परमाणु ऊर्जा के शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए प्रयोग के बारे में वे एजेन्सी के साथ समझौता कर ऐसा करें।

परमाणु अप्रसार सन्धि की आलोचना

  • क . बड़ी शक्तियों द्वारा परमाणु एकाधिकार की साजिश - परमाणु प्रसार रोक सन्धि पर अन्य राष्ट्रों के हस्ताक्षर करवा कर सन्धि की पाँच परमाणु शक्तियां अपना परमाणु एकाधिकार कायम रखने की साजिश का खेल खेलना चाहती हैं। इस सन्धि में परमाणु शक्तियों द्वारा परमाणु हथियार बनाने पर नहीं, बल्कि अन्य देशों द्वारा परमाणु हथियार न बनाने और विस्फोट नहीं करने की व्यवस्था की गयी है। इस प्रकार बड़ी शक्तियों अन्य देशों को शक्तिशाली नहीं देखना चाहती।

  • ख. फ्रांस और चीन द्वारा सन्धि पर हस्ताक्षर करने से इन्कार - दुनिया की पाँच परमाणु एवं बड़ी शक्तियों में फ्रांस एवं चीन शामिल हैं। उन्होंने इस सन्धि पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया। जब इन जैसे बड़े देशों ने इस सन्धि के प्रति उपेक्षा भाव दिखाया जिसके कारण गैर परमाणु देशों में सन्धि के प्रति नकारात्मक रूख रखा ।। हालांकि चीन ने अमस्त, 1991 में कहा कि यह अब इस सन्धि पर हस्ताक्षर करने को तैयार हैं, किन्तु ऐसा लगता है कि वह इसके साथ अपनी कतिपय शर्तें भी जोड़ेगा, जिससे इसका कोई विशेष महत्व नहीं रह जायेगा। यह चीन द्वारा हस्ताक्षर न करने के समान ही होगा।

  • ग. इसे सामान्य या पूर्ण निशस्त्रीकरण सन्धि नहीं माना जा सकता-अनेक लोग इस सन्धि को निशस्त्रीकरण के क्षेत्र मे अत्यन्त महत्वपूर्ण कदम मानते हैं जो सही नहीं है। इसमें केवल परमाणु हथियारों पर रोक की ही व्यवस्था है, अन्य परम्परागत शस्त्रास्त्रों का उत्पादन रोकने या उन्हें सीमित करने के बारे में यह एकदम मौन है। इस कारण इसे सामान्य या पूर्ण निशस्त्रीकरण सन्धि कदापि नहीं माना जा सकता।

  • घ. सन्धि भेदभाव पूर्ण-सन्धि पर अनेक देशों द्वारा हस्ताक्षर न करने का प्रमुख कारण उसकी भेदभाव पूर्ण व्यवस्थाएँ है। इसमें बड़ी शक्तियों द्वारा परमाणु शस्त्रों के उत्पादन, शस्त्र जमा करने (Stock Piling) तथा उनके प्रयोग पर किसी प्रकार की रोक नहीं लगायी गयी है। इसके विपरीत गैर-परमाणु देशों द्वारा ऐसे हथियार नहीं बनाने के सम्बन्ध में लम्बी-चौड़ी व्यवस्थाएँ की गयी है। इसे दोहरे मानदण्ड अपनाने वाली सन्धि ही कहा जा सकता है क्योंकि परमाणु और गैर-परमाणु देशों के बारे में इसकी व्यवस्थाएँ अलग-अलग हैं।

  • ङ . सन्धि से परमाणु ऊर्जा के शान्तिपूर्ण उपयोग में बाधा - इस सन्धि में गैर-परमाणु राष्ट्रों से कहा गया है कि वे परमाणु विस्फोट न करें तथा इसेक बदले परमाणु हथियार सम्पन्न राष्ट्र परमाणु ऊर्जा के शान्तिपूर्ण प्रयोग के लिए तकनीकी जानकारी एवं मदद देंगे। अनेक तकनीकी बातों का बहाना बनाकर परमाणु शक्तियाँ इस सहायता के आश्वासन को पूरा करने से मुकर सकती हैं। इस प्रकार परमाणु ऊर्जा के अभाव में विकासशील देशों द्वारा विकास कार्यक्रमों को सम्पादित करने में अनेक प्रकार की बाधाएँ उठेगी।

9. SALT-I समझौता अमरीका और सोवियत संघ के मध्य 4 जुलाई, 1974 को दस वर्षीय अणु शस्त्र परिसीमन समझौता हुआ जिसे 31 मार्च, 1976 से लागू किया जाना निश्चित किया गया। इसके अनुसार यह स्वीकार किया गया कि 10 वर्षों तक दोनों शक्तियाँ आक्रामक परमाणु शस्त्रों के उत्पादन को सीमित रखेंगी तथा 150 टन से अधिक के भूमिगत परमाणु परीक्षण नहीं करेंगी। इसमें यह भी निश्चित किया गया कि शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए किये गये परीक्षण इसकी परिधि में नहीं आयेंगे।

10. SALT-II समझौता-अमरीका और सोवियत संघ में 1979 में साल्ट-II समझौते पर हस्ताक्षर हुए। इसके बाद इस समझौते पर दोनों देशों की संसद द्वारा अनुमोदन होना था। अमरीकी कांग्रेस में इस पर विचार चल रहा था कि तभी सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में अपनी सेनाएँ भेजकर हस्तक्षेप कर दिया। राष्ट्रपति कार्टर ने इस हस्तक्षेप के विरोधस्वरूप साल्ट-II के अनुमोदन को स्थगित करा दिया। इसलिए यह लागू नहीं हो सका।

11. मध्यम दूरी प्रक्षेपास्त्र सन्धि-8 दिसम्बर, 1987 को राष्ट्रपति रीगन और मिखाइल गोर्बाच्योव ने वाशिंगटन में इस सन्धि पर हस्ताक्षर किसे। इसमें दोनों नेताओं ने मध्यम दूरी के प्रक्षेपास्त्र (मिसाइलें) नष्ट करने को सहमत हो गये। इसके अनुसार 1,139 परमाणु हथियार नष्ट किये जाने थे। इसके अनुसार 50 किमी. से 5,000 किमी. तक भूमि पर मार करने वाले प्रक्षेपास्त्र नष्ट होने थे, जिनमें सोवियत संघ के सभी SS-20, SS-21, SS-22 और SS-23 मिसाइलें तथा अमरीका के Pershing IA, Pershing II तथा पृथ्वी पर लगे Curise Missiles नष्ट हो जाने थे निर्धारित समय सीमा में दोनों ने इन्हें नष्ट कर दिया। समस्त विश्व ने इसका स्वागत किया।

12. STARTI सन्धि-अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और सोवियत संघ नेता मिखाइल गोर्बाच्योव ने 31 जुलाई, 1991 को मॉस्को में सामरिक हथियारों में कटौती की ऐतिहासिक सन्धि (Strategic Arms Reductions Treaty START-I) पर हस्ताक्षर किये। इस सन्धि की शर्तों के अनुसार दोनों राष्ट्र अपने परमाणु शस्त्रों में स्वेच्छा से 30 प्रतिशत कटौती करने को सहमत हुए। दोनों नेताओं ने इसे वास्तविक कटौती (Real Cut) कहा तथा सन्धि की प्रशंसा की।
यह स्टार्ट-1 सन्धि 9 दिसम्बर, 2009 को समाप्त हो गई। स्टार्ट-1 के स्थान पर एक नई स्टार्ट सन्धि पर अमरीका व रूस के बीच हस्ताक्षर चेक गणराज्य की राजधानी प्राग (Pragus) में 8 अप्रैल, 2010 को किए गए अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा व रूसी राष्ट्रपति दमित्री मेदवेदेव द्वारा हस्ताक्षरित यह सन्धि स्टार्ट-1 का स्थान लेगी। अमरीकी सीनेट व रूसी फंडरेशन काउन्सिल के अनुमोदन के पश्चात् दोनों देशों द्वारा दस्तावेजों के आदान-प्रदान के बाद यह प्रभावी होगा। मूलतः 10 वर्ष के लिए की गई इस सन्धि का कार्यकाल 5 वर्ष तक बढ़ाया जा सकेगा। नई स्टार्ट सि (START) में दोनों देशों ने सात वर्षों में अपने परमाणु हथियारों की संख्या में एक तिहाई तक कटौती करने तथा उन्हें ले जाने वाली पनडुब्बियों, मिसाइलों व बमवर्षकों की संख्या में आधी से अधिक कटौती करने के लिए प्रतिबद्धता व्यक्त की है। ऑपरेशन डिप्लॉयड न्यूक्लीयर वारहेड्स की संख्या को घटाकर 1550 तक सीमित करने को दोनों पक्ष उस सन्धि से सहमत हुए हैं।

13. START-II सन्धि - अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और सोवियत संघ नेता येल्तसिन ने 30 जनवरी, 1993 को मास्को में स्टार्ट- II सन्धि पर हस्ताक्षर किये जिसके अनुसार दोनों के परमाणु हथियारों में 2/3 कटौती करनी थी। राष्ट्रपति येल्तसिन ने इस सन्धि को अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि बताया।

14. व्यापक आणविक परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि (Comprehensive Test Ban Treaty CTBT) - यह सन्धि विश्वभर में किये जाने वाले परमाणु परीक्षणों पर रोक लगाने के लिए लायी गयी थी इस सन्धि पर 24 सितम्बर, 1996 से हस्ताक्षर होने शुरू हुए अब तक कुल मिलाकर 154 राष्ट्रों ने इस पर हस्ताक्षर कर दिये हैं तथा उनमें से 45 राष्ट्रों ने इसका विधिवत अनुमोदन भी कर दिया है। परन्तु यह सन्धि तभी प्रभावी हो सकेगी जब विविध परमाणु क्षमता वाले सभी 44 देश इसकी पुष्टि कर दें। अभी तक 44 में से केवल 26 राष्ट्रों ने ही इस सन्धि का अनुमोदन किया है। 13 अक्टूबर, 1999 को अमरीकी कांग्रेस ने इसे अस्वीकार कर दिया। इसके पक्ष में 2/3 बहुमत आवश्यक था जबकि कांग्रेस ने 48 के मुकाबले 51 मतों से यह प्रस्ताव गिरा दिया। इसके बाद CTBT के प्रति विश्वास में कमी आयी है।
इस सन्धि के अनुसार कोई भी देश परमाणु परीक्षण नहीं करेगा, लेकिन परमाणु शस्त्र धारक देश अपने-अपने परमाणु शस्त्र बनाये रखेंगे तथा वे प्रयोगशालाओं को परमाणु अनुसन्धान हेतु परीक्षण कर सकेंगे। परमाणु शस्त्रविहीन देश परमाणु शस्त्र न बनायेंगे और न ही इसके लिए कोई परीक्षण करेंगे। वे शान्ति परमाणु तकनीक का विकास कर सकेंगे परन्तु इस सम्बन्ध में वे अपने परमाणु संयन्त्रों तथा केन्द्रों को अन्तर्राष्ट्रीय निरीक्षण के लिए खुला रखेंगे। भारत जैसे देश की इसको पक्षपातपूर्ण मानते हुए इसका विरोध कर रहे हैं क्योंकि इससे परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्रों की श्रेष्ठता को बनाये रखने का प्रयास किया गया।

15. अमेरिका रूस में परमाणु शस्त्र कटौती सन्धि मई, 2002 में अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज बुश ने रूस की यात्रा की। उन्होंने रूस के साथ मित्रता मजबूत करने के लिए परमाणु शस्त्रों की कटौती संबंधी ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते के अनुसार अमेरिका और रूस साढ़े सात हजार के लगभग परमाणु हथियार कम करेंगे। इन हथियारों की कटौती 2012 तक कर ली जायेगी।

16. निःशस्त्रीकरण पर सम्मेलन - एकमात्र बहुपक्षीय निःशस्त्रीकरण सन्धि वार्ता का निकाय निःशस्त्रीकरण सम्मेलन 2003 में तीन सत्रों में हुआ। भारत को प्रथम सत्र के प्रथम चार सप्ताह के लिए निःशस्त्रीकरण सम्मेलन की अपनी बारी पर अध्यक्षता मिली। इस अवसर पर तत्कालीन विदेशी सचिव कंवल सिब्बल ने अपने वक्तव्य में सार्वभौमिक सुरक्षा की चुनौती के रूप में अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद के आयामों पर प्रकाश डाला और आतंकवाद और सामूहिक विनाश के हथियारों के बीच संपर्कों को प्रकट किया। भारत ने इस कार्यक्रम के वर्तमान डेडलॉक को हटाने के लिए 2002 में की गई 5 राजदूतों की क्रासग्रुप पहल को अपना समर्थन दिया। हालांकि भारत ने सक्रिय रूप से भागीदारी की किन्तु विभिन्न तदर्थ गुटों के लिए अध्यादेश पर मतैक्य के अभाव में इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।

17. संयुक्त राष्ट्र निःशस्त्रीकरण आयोग- 2003 में संयुक्त राष्ट्र निःशस्त्रीकरण आयोग का महासत्र न्यूयार्क में 31 मार्च से 17 अप्रैल, 2003 को हुआ आयोग ने दो विषयों प्रथम नाभिकीय निःशस्त्रीकरण को प्राप्त करने के उपाय एवं द्वितीय पारम्परिक हथियारों के क्षेत्र में व्यावहारिक विश्वासोत्पादक उपाय पर 3 वर्षीय चक्र के भाग के रूप में विचार करना शुरू किया था। 2003 का सत्र इन्हीं दोनों विषयों पर विचार करने में लगा। भारत ने यद्यपि सक्रिय रूप से भाग लिया किन्तु दोनों सत्रों में से किसी भी विषय के सुझाव पर सर्वसम्मति बनाने में असफल रहा और इसमें प्रक्रियात्मक रिपोर्ट स्वीकार की गई।

18. अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी - इसका सम्मेलन का 47वां सत्र 16 से 20 सितम्बर 2003 को हुआ परिवहन सुरक्षा संबंधी रक्षोपाय को मजबूत बनाने के संबंध में संकल्प इसके महत्त्वपूर्ण तथ्य थे। भारतीय राजदूत की अध्यक्षता में परिवहन सुरक्षा संकल्प को रिकार्ड समय में सर्वसम्मति मिली। भारत ने बिना किसी भेदभाव के एजेंसी के सभी सदस्य राज्यों के लिए संतुलित दृष्टिकोण स्थापित किये। अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी ने जून, 2003 के अंत में नाभिकीय ईंधन चूक और नाभिकीय ऊर्जा के लिए नवीनतम प्रौद्योगिकीयों पर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया, जिसमें भारत से उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमंडल ने भाग लिया। भारत ने स्वामित्व विहीन रेडियोएक्टिव स्त्रोतों का पता लगाने और सुरक्षा बनाने तथा रेडियोएक्टिव स्त्रोतों पर अन्तर्राष्ट्रीय आचार संहिता को अंतिम रूप देने में अपना योगदान दिया।

19. रासायनिक हथियार अभिसमय-भारत ने 28 अप्रैल से 9 मई 2003 तक हेग में रासायनिक हथियार अभिसमय के राज्य पक्षकारों के सफल प्रथम समीक्षा सम्मेलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई और राजनीतिक घोषणा और समीक्षा सम्मेलन द्वारा रासायनिक हथियार अभिसमय के तहत अपनी सभी वचनबद्धताओं को पूरा करना जारी रखा। इस वर्ष ओ. पी. सी. डब्ल्यू के तकनीकी सचिवालय ने भारत में विभिन्न सुविधाओं का निरीक्षण बिना किसी अवरोध के किया।

20. जैविक और विषले अस्त्र अभिसमय-नवम्बर, 2002 में जैविक और विषैले हथियार अभिसमय के राज्य पक्षकारों के पाँचवें पुनर्परीक्षा सम्मेलन के सत्र में 2003, 2004, 2005 में राज्य पक्षकारों की एक सप्ताह की अवधि की तीन वार्षिक बैठकें करने के निर्णय के अतिरिक्त यह भी निर्णय लिया गया कि प्रत्येक वार्षिक बैठक की तैयारी विशेषज्ञों की दो सप्ताह की बैठक द्वारा की जाये। 10 से 14 नवम्बर, 2003 को जिनेवा में बी. डब्ल्यू सी. के राज्य पक्षकारों की चर्चा करने हेतु सम्मेलन किया गया। जिसमें समझबूझ बढ़ाने के लिए दण्डविधान बनाने सहित अभिसमय में निर्धारित निषेधो की क्रियान्वित करने के लिए आवश्यक राष्ट्रीय उपाय को स्वीकार करने पर बल दिया गया। इसके साथ ही राष्ट्रीय तंत्र को कायम करने और सुरक्षा बनाए रखने, पैथोजैनिक माइक्रो-आर्गन और टॉक्सिन की अनदेखी के लिए प्राविधिक बनाने और विधिक एवं अन्य तन्त्रों के बारे में बताया गया।

21.  कुछ पारम्परिक हथियारों के सम्बन्ध में अभिसमय भारत कुछ पारम्परिक हथियारों जो अत्यधिक खतरनाक समझो जाते हैं अथवा जिनका काफी गहरा प्रभाव पड़ता है, के प्रयोग को प्रतिबन्धित करने के संबंध में अभिसमय का उच्च संविदाकारी पक्षकार है और उसने सुरंगों और बूबी ट्रेप तथा अन्य उपकरणों के प्रयोग को निषिद्ध अथवा प्रतिबंधित करने संबंधी संशोधित प्रोटोकॉल सहित इसके सभी प्रोटोकोलों का अनुसमर्थन किया है। भारत ने 27-28 नवम्बर 2003 को जिनेवा में संपन्न कुछ पारम्परिक हथियारों से संबंधित अभिसमय के पक्षकार राज्यों की बैठक की अध्यक्षता की। बैठक में सर्वसम्मति से युद्ध विस्फोटक शेषांगों पर नया प्रोटोकॉल स्वीकार किया गया। अध्यक्ष के रूप में भारत ने प्रोटोकॉल के प्रारूप पर सर्वसम्मति विकसित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की जिसकी सभी सदस्य राज्यों ने प्रशंसा की।

 22. हल्के हथियारों से सम्बन्धित नीति-7 - 11 जुलाई 2003 को न्यूयार्क में राष्ट्रीय क्षेत्रीय और सार्वभौम स्तरों पर छोटे और हल्के हथियारों के अवैध व्यापार और इसके सभी पहलुओं को रोकने, उससे लड़ने और समाप्त करने के लिए संयुक्त राष्ट्र कार्ययोजना पर विचार करने के लिए राज्यों की प्रथम द्विवार्षिक बैठक हुई, जिसमें राष्ट्रीय स्तर पर राज्यों कार्य योजना के क्रियान्वयन को मुख्य रूप से जोड़ दिया गया। निःशस्त्रीकरण से संबंधित सम्मेलन में भारत के स्था प्रतिनिधि ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के संकल्प 56 / 24-V के अनुसरण में संयुक्त राष्ट्र महासचिव द्वारा स्थापित छोटे और हल्के हथियारों का पता लगाने और उन्हें चिन्हित करने संबंधी सरकारी विशेषज्ञों के दल की अध्यक्षता की। दल के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय तंत्र विकसित करने की आवश्यकता है, जिससे राज्य छोटे और हल्के हथियारों के अवैध व्यापार की समस्या को समय पर भरोसेमंद तरीके से हल कर सके।

23. वैकल्पिक परमाणु निःशस्त्रीकरण सम्मेलन-17 अप्रैल 2010 को दो दिवसीय परमाणु निःशस्त्रीकरण सम्मेलन का आयोजन ईरान में किया गया। सम्मेलन में परमाणु निःशस्त्रीकरण की चुनौती विभिन्न देशों के अन्तर्राष्ट्रीय कर्तव्यों सामूहिक विनाश के हथियारों के प्रभाव पर विचार विमर्श किया गया।

24. अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु सुरक्षा सम्मेलन परमाणु सुरक्षा से तात्पर्य परमाणु हथियार को अनधिकृत समूहों व व्यक्तियों के हाथ में पहुंचने से रोकना है। इस चिन्ता का मुख्य कारण वर्तमान में आतंकवादी समूहों की गतिविधियों व पहुँच क्षमता का विस्तार है। यह किसी कारणवश परमाणु हथियार आतंकवादी समूहों के हाथ लग जाते हैं जो वैश्विक सुरक्षा को गंभीर खतरा उत्पन्न हो सकता है।
इस पृष्ठभूमि में परमाणु हथियारों की सुरक्षा हेतु पहला विश्व सम्मेलन 12 13 अप्रैल, 2010 को अमरीका के शहर वाशिंगटन में हुआ। इस सम्मेलन में राष्ट्रों की जिम्मेदारी तथा परमाणु सुरक्षा के क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग तथा अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेन्सी की भूमिका को प्रभावी बनाने पर बल दिया। इसी संदर्भ में दूसरा अन्तर्राष्ट्रीय शिखर सम्मेलन 26-27 मार्च, 2012 को दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल में सम्पन्न हुआ। इसमें 53 देशों के राष्ट्रध्यक्षों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में परमाणु सुरक्षा से जुड़े 11 मुद्दों पर विचार-विमर्श कर आम सहमति बनाने का प्रयास किया गया। 1 अप्रैल, 2016 को वाशिंगटन में चौथा परमाणु सुरक्षा सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें 50 देशों के प्रमुख नेताओं ने भाग लिया। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस सम्मेलन में भाग लिया। सम्मेलन में अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया तथा रूस ने भारत को N.S.G. ग्रुप का सदस्य बनाने का समर्थन किया।
इन सम्मेलनों के परिणामस्वरूप 2009 से अब तक कई देश 2965 किग्रा. अत्यधिक क्षमता वाला यूरेनियम नष्ट कर चुके हैं जो 100 से अधिक परमाणु बम बनाने के लिए काफी था।


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