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भोपाल गैस त्रासदी-20वी शताब्दी व इतिहास की अबतक विश्व की सबसे भयावह त्रासदी। ( Bhopal gas tragedy)

प्रस्तावना 

भोपाल गैस त्रासदी, 20वी शताब्दी यहा तक कि मानव इतिहास में अबतक विश्व की सबसे भयावह और दर्दनाक मानव निर्मित आपदा व ओद्योगिक त्रासदी में से एक है। त्रासदी के पीड़ितों के लिए ये एक ऐसा जख्म है जो 34 साल बाद आज भी लोगों के जेहन में ताजा है।भारत में आजादी और विकास के बाद भी, अतीत से हृदय की धड़कनें मौजूद हैं, जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकेगा, और जब भी याद किया जाता है तो वही विनाशकारी तस्वीर हमारी आंखों के सामने बन जाती है। भोपाल गैस त्रासदी भारत में हुई भयानक घटनाओं में से एक है। आधी रात में, जब लोग सो रहे थे और मीठे सपनों का आनंद ले रहे थे, तब यूनियन कार्बाइड इंडियन लिमिटेड कीटनाशक संयंत्र से मिथाइल आइसो सायनेट गैस का रिसाव हो रहा था, जिसने न केवल हजारों लोगों की जान ले ली, बल्कि कई लोगों को बेघर कर दिया ।

भोपाल गैस रिसाव और इससे हुई दुर्घटना से सवालों की कतार लग गयी - औद्योगिक सुरक्षा खतरा . मुआवजा और औद्योगिक दुर्घटना से पीड़ित लोगों की सहायता , बहुराष्ट्रीय उद्योगों के दायित्व खतरनाक तकनीकों का स्थानान्तरण और प्रयोग वगैरह । अमरीका और भारत से रिसाव पर कई प्रतिक्रियायें आई - कानूनी , नीति सम्बन्धी और न्यायिक , जो पिछले बीस सालों से जैसे निरर्थक सी चली जा रही हैं । यह दुर्घटना सही मौका है कि इन जवाबों का मूल्यांकन करें कि इसके क्या कारण और परिणाम थे और हम क्या भविष्य मे ऐसी किसी दुर्घटना के लिए तैयार हैं ?

घटनाक्रम व प्रभाव

2 दिसंबर 1984 की वो काली रात, जब भोपाल की यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री से जहरीली गैस मिथाइल आइसोसाइनेट , टैंक E-610 मे रखी थी जिसमें
(यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन संयुक्त राज्य अमेरिका की रसायन और बहुलक बनाने वाली सबसे बड़ी कंपनियों में से एक है । सन् 1969 में भारत में यूनियन कार्बाइड इडिया लिमिटेड कारखाने का निर्माण हुआ जहाँ पर मिथाइलआइसोसाइनाइट नामक पदार्थ से कीटनाशक बनाने की प्रक्रिया आरम्भ हुआ था
इसके 10 सालों बाद 1979 में भोपाल में एक प्रॉडक्शन प्लांट लगाया। इस प्लांट में एक कीटनाशक तैयार किया जाता था जिसका नाम सेविन था। सेविन असल में कारबेरिल नाम के केमिकल का ब्रैंड नाम था। )
एक साइड पाइप से E-610 टैंक में पानी घुस गया। पानी घुसने के कारण टैंक के अंदर जोरदार रिएक्शन होने लगा जो धीरे-धीरे काबू से बाहर हो गया।
स्थिति को भयावह बनाने के लिए पाइपलाइन भी जिम्मेदार थी जिसमें जंग लग गई थी। जंग लगे आइरन के अंदर पहुंचने से टैंक का तापमान बढ़कर 200 डिग्री सेल्सियस हो गया जबकि तापमान 4 से 5 डिग्री के बीच रहना चाहिए था। इससे टैंक के अंदर दबाव बढ़ता गया। इससे टैंक पर इमर्जेंसी प्रेशर पड़ा और 45-60 मिनट के अंदर 40 मीट्रिक टन एमआईसी का रिसाव हो गया। टैंक से भारी मात्रा में जहरीली गैस बादल की तरह पूरे इलाके में फैल गई। गैस के उस बादल में नाइट्रोजन के ऑक्साइड, कार्बन डाइऑक्साइड, मोनोमेथलमीन, हाइड्रोजन क्लोराइड, कार्बन मोनोक्साइड, हाइड्रोजन सायनाइड और फॉसजीन गैस थी। जहरीले बादल के चपेट में भोपाल का पूरा दक्षिण पूर्वी इलाका आ गया।
जिससे लगभग 15000 से अधिक लोगो की जान गई तथा बहुत सारे लोग अनेक तरह की शारीरिक अपंगता से लेकर अंधेपन के भी शिकार हुए।
मरने वालों के अनुमान पर विभिन्न स्त्रोतों की अपनी-अपनी राय होने से इसमें भिन्नता मिलती है। फिर भी पहले अधिकारिक तौर पर मरने वालों की संख्या 2,259 थी। भोपाल की लगभग 4 लाख 20 हज़ार लोगो की जनता इस विषैली गैस से सीधि रूप से प्रभावित हुई जिसमे 200,000 लोग 24 वर्ष की आयु से कम थे और 3000 गर्भवती महिलाये थी, उन्हे शुरुआती दौर में तो खासी, उल्टी, आंखों में उलझन और घुटन का अनुभव हुआ। 2241 लोगो की इस गैस की चपेट में आ कर आकस्मिक ही मौत हो गयी। 1991 में सरकार द्वारा इस संख्या की पुष्टि 3928 पे की गयी। दस्तावेज़ो के अनुसार अगले 2 सप्ताह के भीतर 8000 लोगो की मृत्यु हुई। मध्यप्रदेश सरकार द्वारा गैस रिसाव से होने वाली मृत्यु की संख्या 3787 बतलायी गयी है।
2006 में सरकार द्वारा दाखिल एक शपथ पत्र में माना गया था कि रिसाव से करीब 558,125 सीधे तौर पर प्रभावित हुए और आंशिक तौर पर प्रभावित होने की संख्या लगभग 38,478 थी। ज़हरीली गैस के असर और उस रात मची भगदड़ में हज़ारों लोग और पशु-पक्षियों की जानें गईं. साथ ही पर्यावरण को ऐसी क्षति पहुंची जिसकी भरपाई सरकारें आज तक नहीं कर पाई हैं.
सेंटर फॉर साइंस एंड इंवायरंमेंट द्वारा किए गए परीक्षण में इस बात की पुष्टि हुई है कि फैक्ट्री और इसके आसपास के 3 किमी क्षेत्र के भूजल में निर्धारित मानकों से 40 गुना अधिक जहरीले तत्व मौजूद हैं। मध्य प्रदेश प्रदूषण बोर्ड के अलावा कई सरकारी और ग़ैरसरकारी एजेंसियों ने पाया है कि फैक्ट्री के अंदर पड़े रसायन के लगातार ज़मीन में रिसते रहने के कारण इलाक़े का भूजल प्रदूषित हो गया है. कारखाने के आस-पास बसी लगभग 17 बस्तियों के ज़्यादातर लोग आज भी इसी पानी के इस्तेमाल को मजबूर हैं. एक सर्वेक्षण के मुताबिक़ इसी इलाक़े में रहने वाले कई लोग शारीरिक और मानसिक कमजोरी से पीड़ित है. गैस पीड़ितों के इलाज और उन पर शोध करने वाली संस्थाओं के मुताबिक़ लगभग तीन हज़ार परिवारों के बीच करवाए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि कई बच्चे इस तरह के हैं जो या तो शारीरिक, मानसिक या दोनों तरह की कमजोरियों के शिकार हैं कई के होंठ कटे हैं, कुछ के तालू नहीं हैं या फिर दिल में सुराख हैं, इनमें से काफ़ी सांस की बीमारियों के शिकार हैं. बच्चे जन्मजात विकृतियों या गंभीर बीमारियों के साथ पैदा हो रहे हैं ।
दुर्घटना के तुरंत बाद यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड (यूसीआइएल) के तत्कालीन सीईओ वारेन एंडरसन भारत छोड़कर भाग जाने में कामयाब रहा लेकिन बाद में जब वह भारत वापस आया तो उसे एयरपोर्ट पर ही गिरफ्तार कर लिया गया।
भारत सरकार ने यूनियन कार्बाइड का ( पीड़ितों से बिना सलाह लिए ) सिर्फ 45 करोड़ डालर के बदले उनकी सारी जिम्मेदारियों से बरी कर दिया , जबकि 3 अरब डाॅलर की क्षतिपूर्ति की मांग रखी गई थी ।

त्रासदी के कारण

• इस घटना के लिए यूनियन कार्बाइड इडिया लिमिटेड द्वारा उठाए गए शुरुआती कदम भी कम जिम्मेदार नहीं थे। उस समय जब अन्य कंपनियां कारबेरिल के उत्पादन के लिए कुछ और इस्तेमाल करती थीं जबकि यूनियन कार्बाइड इडिया लिमिटेड ने मिथाइल आइसोसाइनेट (MIC) का इस्तेमाल किया। MIC एक जहरीली गैस थी। चूंकि MIC के इस्तेमाल से उत्पादन खर्च काफी कम पड़ता था, इसलिए यूनियन कार्बाइड इडिया लिमिटेड ने मिथाइल आइसोसाइनेट को अपनाया।
• भोपाल गैस दुर्घटना से पहले भी कई घटनाएॅ हुई थी जिसे नजरन्दाज किया गया था 1981 में फॉसजीन गैस रिसाव हो गया था जिसमें एक वर्कर की मौत भी हो गई थी।
• जनवरी 1982 में एक बार फिर फॉसजीन गैस का रिसाव हुआ जिसमें 24 वर्कर्स की हालत खराब हुई थी। उनको अस्पताल में भर्ती कराया गया था। अगस्त 1982 में एक केमिकल इंजिनियर लिक्विड मिथाइलआइसोसाइनाइट (MIC) के संपर्क में आने के कारण 30 फीसदी जल गया था। उसी साल अक्टूबर में एक बार फिर मिथाइलआइसोसाइनाइट (MIC) का रिसाव हुआ। उस रिसाव को रोकने के लिए एक व्यक्ति बुरी तरह जल गया।
• इन रिसाव का मुख्य कारण दोषपूर्ण सिस्टम का होना था। दरअसल 1980 के शुरुआती सालों में कीटनाशक की मांग कम हो गई थी। इससे कंपनी ने सिस्टम के रखरखाव पर सही से ध्यान नहीं दिया। कंपनी ने मिथाइलआइसोसाइनाइट (MIC) का उत्पादन भी नहीं रोका और अप्रयुक्त मिथाइलआइसोसाइनाइट (MIC) का ढेर लगता गया।
• राजकुमार केसवानी नाम के पत्रकार ने 1982 से 1984 के बीच इस पर चार आर्टिकल लिखे। हर आर्टिकल में यूसीआईएल प्लांट के खतरे से चेताया।
नवंबर 1984 में प्लांट काफी घटिया स्थिति में था। प्लांट के ऊपर एक खास टैंक था। टैंक का नाम E-610 था जिसमें मिथाइलआइसोसाइनाइट 42 टन थे जबकि सुरक्षा की दृष्टि से मिथाइलआइसोसाइनाइट का भंडार 40 टन से ज्यादा नहीं होना चाहिए था। टैंक की सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं किया गया था और वह सुरक्षा के मानकों पर खड़ा नहीं उतरता था।
• भारत सरकार का भोपाल कारखाने के सम्भाव्य खतरे के बारे में अनजान होना असम्भव है । मिसाल के तौर पर 1982 में विदेशी सहयोग के लिए अनुमोदन के आवेदन पत्र में यह पर लिखा है कि मिथाइल आइसोसायनट बनाने और गोदाम में रखने के साथ अत्यत खतरनाक पदार्थ और तकनीक जुड़े थे । 1984 के रिसाव के पहले भी पत्रकार और यूनियन कार्बाइड इडिया लिमिटेड मजदूर संघ के आदोलना ने खतरे की ओर ध्यान आकर्षित किया पर राज्य और केंद्र सरकार ने इन्हे नजरन्दाज कर दिया था ।
महत्वपूर्ण है कि जब सरकार खतरनाक पदार्थों का इस्तेमाल करने वाले उद्योगों का अनुमति दे रही थी तब इनकी सुरक्षा और खतर के लिए नियंत्रण का काई ढांचा तैयार करने की कोई कोशिश नहीं की गई थी।
सरकार ने स्थानीय समुदाय को कार्बाइड कारखाने से सम्भाव्य खतरे की जानकारी देने की कोई चष्टा नहीं की । वास्तव में स्थानीय प्रशासन द्वारा कारखाने की अवस्थिति को सुधारने के प्रयत्नों का 1975 में रद्द कर दिया था

सरकार द्वारा उठाए गए कदम

रिसाव के तुरन्त बाद चिकित्सा संस्थानों पर अत्यधिक दबाव पड़ा। त्रासदी के 2 दिन के पश्चात ही राज्य सरकार ने राहत का कार्य आरम्भ कर दिया था। जुलाई 1984 में मध्य प्रदेश के वित्त विभाग ने राहत कार्य के लिये लगभग एक करोड़ चालीस लाख डॉलर कि धन राशि लगाने का निर्णय लिया। कुछ सप्ताह के भीतर ही राज्य सरकार ने गैस पीड़ितों के लिये कई अस्पताल एवं चिकित्सालय खोले तथा साथ ही कई नये निजी संस्थान भी खोले गये। सर्वाधिक प्रभावित इलाकों में 70 प्रतिशत से ज़्यादा चिकित्सक कम पढ़े लिखे थे, वे इस रासायनिक आपदा के उपचार के लिये पूर्ण रूप से तैयार नहीं थे। 1988 में चालू हुए भोपाल मेमोरिअल अस्पताल एवं रिसर्च सेन्टर ने 8 वर्षों के लिये ज़िन्दा पीड़ितो को मुफ्त उपचार उपलब्ध कराया जो सुविधा आज भी उनके लिए उपलब्ध है।
अक्टूबर 2003 के अन्त तक भोपाल गैस त्रासदी राहत एवं पुनर्वास विभाग के अनुसार 554,815 घायल लोगो को व 14310 मृत लोगों के वारिसों को मुआवजे का कुछ अंश दिया गया है।  

दुर्घटना के बाद भी


रिसाव के बाद भारत सरकार ने 1985 में भोपाल गैस क्लेम ऍक्ट पारित किया जिसके तहत सिर्फ सरकार को ही दुर्घटना प्रभावितों का प्रतिनिधित्व करने का हक दिया गया । साथ ही पीड़िता के मुआवजे की मांग की लंबी -चौड़ी कार्यवाही के तरीके भी बनाए गए।
पीड़ितों को असली पीड़ा रिसाव के हुई । भारत सरकार ने 1985 में भोपाल गैस क्लेम ऍक्ट पारित किया जिसके तहत सिर्फ सरकार को ही दुर्घटना प्रभावितों का प्रतिनिधित्व करने का हक दिया गया । साथ ही पीड़िता के मुआवजे की मांग की लंबी - चौड़ी कार्यवाही के तरीके भी बना दिया शुरू में दिए गए मुआवजे के सिवाय उच्चतम न्यायालय के आदेश जारी करने के सालों बाद तक , सरकार में अंतरिम मुआवजा तक देने की भी कोई कोशिश नही की गई ।1989 में भारत सरकार ने यूनियन कार्बाइड का ( पीड़ितों से बिना सलाह लिए ) सिर्फ 45 करोड़ डालर के बदले उनकी सारी जिम्मेदारियों से बरी कर दिया , जबकि 3 अरब डालर की क्षतिपूर्ति की मांग रखी गई थी । इसके तीन साल बाद से ही मुआवजों पर क्लेम्स कोर्ट ने फैसला सुनाना शुरू किया।

पीड़ितों पर इस मुआवजे के प्रक्रम का और भी बदतर असर हुआ । हजारों गरीब , अशिक्षित और कमजोर पीड़ितों का बेरहम प्रशासन से होड लेनी पड़ी .जिसने उन्हें पीड़ित मानने से ज्यादा दावेदार मान लिया था । मुआवजे देने के तरीके की वजह से गौण अधिकारी , डॉक्टर , वकील और कभी - कभी जजों के बीच एक अधम अंतसंबंध सा बन गया । मुआवजे के प्रशासनिक तरीकों का वोझीलापन . मनमानी और भ्रष्टाचार की वजह से पीड़ितों को बहुत कम मुआवजा बहत देर से और भारी कीमत पर ही मिला । यह तो उनकी बात है जिन्हें कुछ मिला - हजारों दाव रद्द कर दिए गए और अनंक के नाम ही दर्ज नहीं किये गये ।
भोपाल से सबसे बड़ी सीख यह लेनी है कि तुच्छ तकनीकी मुद्दों को उठाये बगैर सभी पीड़ितों को पहलं मदद पहुँचानी चाहिए । भोपाल के पीड़ितों की दुर्दशा से ऐसे क्षतिपूर्ति प्रतिमान की बात छिड़ी है जो कि मुआवजे के मामले का जिम्मेदारी और निवारण से अलग रखकर पीड़ितों की तत्काल क्षतिपूर्ति मुमकिन वनातं हुए पारंपरिक कानून की व्यवस्थाओं मिलने वाले मुआवजों से वंचित नहीं करता हे

निष्कर्ष

इस घटना में हज़ारों लोगों की मौत हो गई और लाखों लोग इससे प्रभावित हुए
रिसाव की घटना पूरी तरह से कंपनी की लापरवाही के कारण हुई थी, पहले भी कई बार रिसाव की घटनाएँ हुई थीं लेकिन कंपनी ने सुरक्षा के समुचित उपाय नहीं किये थे।
जब सरकार खतरनाक पदार्थों का इस्तेमाल करने वाले उद्योगों का अनुमति दे रही थी तब इनकी सुरक्षा और खतर के लिए नियंत्रण का काई ढांचा तैयार करने की कोई कोशिश नहीं की गई थी।
भोपाल से सबसे अहम सिख यह मिली है कि खतरनाक उद्योगों को अवस्थिति और फैलाव से जुड़े खतरा प्रबंधन और नियंत्रण के निर्णय में पारदर्शिता और सार्वजनिक भागीदारी की सख्त जरूरत है । जाहिर है कि गोपनीयता से जवाब देही में कमी आ जाती है । जानने के हक को पहचानकर पारदर्शिता पर जोर , यानि सूचना देने का दायित्व , निर्णायक है , क्योंकि जानकारी के साथ सभी पर जिम्मेदारी आती है ।


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