प्रस्तावना समकालीन विश्व में नारीवाद एक सशक्त विचारधारा के रूप में विकसित हुआ। सही अर्थों में नारीवाद केवल विचारधारा नहीं है वरन यह क्रांति है, चेतना है विश्वास है तथा आस्था है। यह उन सभी व्यवस्थाओं के विरुद्ध प्रहार हैं जो पुरुषों की संकीर्ण मानसिकता की देन है। यह एक तरफ पुरुष प्रधान समाज के विरुद्ध शंखनाद है वहीं दूसरी तरफ नारी उद्धार के लिए रचनात्मक प्रयास है। यह नारियों के ऊपर परंपरा से आरोपित तृतीय बंधनों से महिलाओं को मुक्त करने तथा उन्हें अपने व्यक्तिगत एवं व्यवसायिक नियति के निर्धारण के लिए बनाने के लिए समर्थ बनाने के लिए प्रयत्नशील है। इस आंदोलन के निम्न प्रमुख प्रतिपादन या विचारक है शीला रोबोथम, शुलामिथ फायरस्टोन, जर्मेन गिर्येक, कैट मिलेट, साइमन डी बुआ और मेरी वॉलस्टोनक्राफ्ट इत्यादि ।
नारीवाद का अर्थ व विकास
एक अवधारणा के रूप में नारीवाद मुख्य पुरुष के मुकाबले नारी की स्थिति भूमिका और अधिकारों से गहरा सरोकार रखना है. नारी की पराधीनता और नारी के प्रति होने वाले अन्याय पर अपना ध्यान केंद्रित करना और इनके प्रतिकार के उपायों पर विचार करना है। वस्तुतः नारीवाद पितृतंत्रा के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया एवं विद्रोह है, पुरुष प्रभुत्व के विरूध अवधारणा है तथा इस विचार का खण्डन है कि महिलाएं पुरूषों के लिए ऐश का साधन है तथा एक विचारधारा के रूप में नारीवाद महिलाओं के साथ हुए शोषण का अंत चाहता है तथा इस विचार का विरोध है कि महिलाएं सम्पूर्ण मानवीय स्वरूप से निम्न हैं।
एक आंदोलन में रूप में नारीवाद का उदय 1970 के दशकों से माना जा सकता है परन्तु स्त्री-पुरुष की सापेक्ष स्थिति का प्रश्न चिरकाल से उठता रहा है प्राचीन यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने यद्यपि संरक्षक वर्ग के अंतर्गत स्त्री पुरुष को समान माना किन्तु उन्ही के शिष्य अरस्तु ने पुरुषों को तुलना में स्त्रियों की हीनता पर बल देने हुए उन्हें दासों के समकक्ष माना। आधुनिक काल में नारीवाद पर पहली रचना "A vindication of the Rights of women" (1792) थी जिसकी रचना मेरी वालस्टनक्रापट द्वारा की गयी। इस पुस्तक में स्त्रियों को कानूनी राजनीतिक तथा शैक्षिक क्षेत्रों में
समानता प्रदान करने के लिए शानदार पैरवी की गयी। वॉल्स्टनक्राफ्ट ने विशेष रूप से स्त्री पुरुष के लिए पृथक-पृथक सदगुणों की प्रचलित धारणाओं का खण्डन करते हुए सामाजिक जीवन में स्त्री-पुरूष की एक जैसी स्थिति व भूमिका की मांग की। इसी प्रकार जॉन स्टुअर्ट मिल ने अपनी महत्त्वपूर्ण कृति "The subjection of women" (1869) के अन्तर्गत तक्र दिया कि स्त्री-पुरूष का सम्बन्ध मैत्री पर आधारित होने चाहिए न की प्रभुत्व पर मिल ने विशेष रूप से विवाह कानून में सुधार व स्त्री मताधिकार पर बल देते हुए स्त्रियों को समान अवसर प्रदान करने की वकालत की। नारीवाद की मुख्यतः तीन लहरे अर्थात् चरण बताये जाते है
नारीवाद की लहरें
(Waves of Feminism)
अध्ययन के दृष्टिकोण से नारीवादी लेखक नारीवाद के विकास की तीन प्रमुख लहरों अथवा चरणों में विभाजित करते है।
पहली लहर/चरण - नारीवाद की पहली लहर का सम्बन्ध 19वीं शताब्दी तथा बीसवी शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में इंग्लैंड तथा अमरीका में नारीवादी गतिविधियों से है। इस काल गतिविधियों का मुख्य केन्द्र कानूनी असमानताओं को समाप्त करना था विशेषतः मताधिकार के क्षेत्र में स्त्रियों के साथ की जाने वाली असमानता को समाप्त करना और पुरुषों के साथ समान मताधिकार प्राप्त करना
'प्रथम लहर' (first wave)शब्द का प्रयोग बाद में किया गया जब नये जारी आन्दोलनों ने दूसरी लहर ' शब्द का प्रयोग करना आरम्भ किया तथा जब कानूनी (dejure) • असमानताओं के साथ-साथ वास्तविक (de facto) असमानताओं को समाप्त करने के लिए, जाने लगी। बिलस्टोनक्राफ्ट को ब्रिटिश नारीवादी आन्दोलन की जननी माना जाता है जिसके विचारों में स्त्रियों के मताधिकार के समर्थकों की सोच को आकार दिया। इन आन्दोलनकारियों से महिलाओं के वोट के अधिकार के लिए कई अभियान चलाये जिनके परिणामस्वरूप 1918 में महिलाओं के कुछ विशिष्ट समूहों को तथा 1928 में सभी महिलाओं को चोट का अधिकार प्राप्त जी या जो प्रथम विश्व युद्ध में महिलाओं द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका तथा वोट के समर्थन में का मिल-जुला परिणाम था।
द्वितीय लहर/ चरण - नारीवाद की द्वितीय लहर (second wave) का आरम्भ सामान्यतः 1960 के दशक से माना जाता है। यह लहर तब से लेकर आज तक किसी न किसी रूप में चल रही है और यह नारीवाद को तीसरी लहर आरम्भ होने के बावजूद इसके समानान्तर चल रही है। जहाँ नारीवाद की प्रथम लहर में मुख्य कानूनी असमानताओं पर बल दिया गया, वहाँ द्वितीय लहर के लेखकों का विचार था कि कानूनों तथा वास्तविक असमानतायें दोनों आपस में जटिल तरीके से जुड़ी हुई होती है और जिन्हें समाप्त करने की आवश्यकता है। इस आन्दोलन ने महिलाओं को यह अनुभव करने के लिए प्रोत्साहित किया कि किस तरह उनके व्यक्तिगत जीवन के अधिकतर पहलूओं का राजनीतिकरण हुआ है और शक्ति के लैंगिक ढाँचे की अभिव्यक्ति मात्र है। जहाँ नारीवाद की प्रथम लहर ने मताधिकार जैसे मुद्दे पर बल दिया, वहाँ द्वितीय लहर के लेखकों का विषयक्षेत्र अन्य प्रकार की असमानताएँ थी जैसे सामाजिक भेदभाव तथा उत्पीड़न
द्वितीय लहर के नारीवादी सक्रियवादिया के कुछ मूल मुद्दे तथा कार्यक्रम थे।
- 1.घरेलू स्तर पर सताई गई महिलाओं के लिए आश्रय स्थलों का निर्माण।
- 2. महिलाओं के साथ अन्य लैगिक दुरोपयोग को सार्वजनिक स्तर पर मान्यता, गर्भ निरोधक उपाय तथा अन्य प्रजनन सम्बन्धी सेवाओं तक पहुँच जैसे गर्भपात को कानूनी मान्यता प्रदान करना।
- 3. कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ दुव्यवहार से सम्बन्धित नियमों का निर्माण एवम् कार्यन्वयन बच्चों की देखभाल सम्बन्धी सेवाएँ।
- 4. युवतियों के लिए शैक्षणिक एवम् खेलकूद के लिए महिलाओं से सम्बन्धित शैक्षणिक कार्यक्रमों का प्रावधान आदि।
तीसरी लहर/चरण - नारीवाद की तीसरी लहर ने द्वितीय लहर के लेखकों द्वारा दी गई नारीत्व (femininity) की (essentialist) परिभाषा को चुनौती दी जिसमें नारी की पहचान को सर्वव्यापक माना गया उच्च मध्यवर्ती महिलाओं के अनुभव के साथ जुड़ी हुई थी तथा जो मूलत: अधिकतर अश्वेत महिलाओं के अनुभव, उत्तरउपनिवेशी सिद्धान्त, आलोचना सिद्धान्त,पुरा राष्ट्रीय परिस्थिकी नारीवाद, नव नारीवादी सिद्धान्त तथा क्वीर (queer) सिद्धान्त आदि को निहित किया गया है।
तृतीय सहर के लेखक अधिकतर सूक्ष्म राजनीति (micro politics) पर ध्यान केन्द्रित करते हैं और उनकी रचनाओं में लैंगिक अभिव्यक्तियों तथा प्रतिनिधित्व के वे स्वरूप दिखाई देते है जो द्वितीय लहर के लेखकों की अपेक्षा प्रत्यक्षतः कम राजनीतिक है। वे द्वितीय लहर के लेखकों को इस धारा को भी चुनौती देते है कि महिलाओं के लिये क्या ठीक है और क्या नहीं। तृतीय लहर के लेखकों को एक अन्य विशेषता यह है कि इसमें विविध पृष्ठभूमि के योगदान दे रहे है और वे विभिन्न वर्गों, संस्कृतियों, लिगों तथा सैक्सुयलिटी से सम्बन्ध रखते है। इस लहर के कुछ लेखक स्वयं को 'नारीवादी' कहलवाने में भी हिचकिचाते हैं क्योंकि उनके अनुसार नारीवादी' को अधिकतर एक ऐसी शब्दावली के साथ जोड़ा जाता है जो पुरुषों अथवा वर्ग के प्रति धृणा की भावना रखता है। तृतीय लहर के लेखक नारीवाद की किसी भी सर्वमान्य धारणा को चुनौती देते हैं।
नारीवाद के स्वरूप (Forms of Feminism)
नारीवादी विचारधारा कई स्वरूपों में अभिव्यक्त हुई है। 1970 के दशक में महिला लेखकों मे एक ऐसे सिद्धान्त का विकास किया जिसने महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों की व्याख्या करने में सहायता की। कई स्थानों पर का विरोध करने तथा चुनौती देने के लिए उभरने लगी। 1980 के दशक में नारीवाद से जुड़े मुद्दों को लेकर विभिन्न लेखकों एवम् आन्दोलनकारियों में काफी मतभेद उभरने लगे। नारीवाद जो कभी एक सिद्धान्त था. धीरे-धीरे कई सिद्धान्तों में घटने लगा जो नारीवाद के अलग-अलग मुद्दों पर बल दे रहे थे। नारीवाद की प्रत्येक परिभाषा कई तत्त्वों पर निर्भर करने लगी-जैसे लेखक की अपनी मान्यता, इतिहास, संस्कृति आदि। परिणामस्वरूप आज इस नारीवाद के कई स्वरूप पहचान सकते है। इनमें प्रमुख हैं उदारवादी समाजवादी उग्रवादी, इच्णास्वातंत्र्यवादी अश्वेत तथा पारिस्थिकी नारीवाद।
1.उदारवादी नारीवाद(Liberal Feminism)
यह 1950 तथा 1960 के दशकों में काफी लोकप्रिय था जब कई प्रकार के नागरिक अधिकार आन्दोलन चल रहे थे। उदारवादी नारीवाद का प्रमुख विचार यह है कि सभी व्यक्तियों को ईश्वर ने समान पैदा किया है और सभी समान अधिकारों के हकदार है। इनका मानना है कि समाज में नारी उत्पीड़न का मुख्य कारण वह परम्पराएँ तथा व्यवहार है जिनके माध्यम से पुरुष एवम् स्त्री का समाजीकरण होता है, जिसमें पैतृक सत्ता का समर्थन किया जाता है और जो पुरुषों को शक्ति के पदों पर रखती है। उदारवादियों का विचार है कि नारी में भी पुरुष के समान हो बौद्धिक योग्यता होती है। अतः समाज के आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक क्षेत्रों में उसे समान अवसर दिये जाने चाहिए। महिलाओं को अपना जीवन खुद चुनने का अधिकार होना चाहिए न कि उनके लिंग के कारण इसे किसी दूसरे द्वारा चुना जाना चाहिए। अनिवार्यतः महिलाएँ भी पुरुषों की हो तरह होनी चाहिए। उदारवादी नारीवाद उन सभी प्रकार के कानूनों के निर्माण का समर्थन करता है जो नारी के जीवन के मार्ग में आने वाले अवरोधों को हटाने में मदद करते है। इस प्रकार के कानून महिलाओं के लिए समान अवसर तथा समान अधिकारों की मांग करते हैं जैसे नौकरियों तक समान पहुँच तथा समान वेतन। उदारवादियों का मानना है कि इन प्रकार के अवरोधों की समाप्ती सीधे तौर से पैतृक सत्ता को चुनौती देते है और वे नारी की स्वतंत्रता में वृद्धि करते हैं। उदारवादी नारीवादियों को कई ऐसे कानूनों का श्रेय दिया जा सकता है जिन्होंने समाज में स्त्री की स्थिति में अपेक्षाकृत सुधार किया है जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, जनकल्याण जैसे क्षेत्रों में सुधार तथापि पैतृक सत्ता के विरुद्ध संघर्ष में उदारवादियों ने स्वयं को केवल कानून निर्माण प्रक्रिया तक सीमित रखा है। नारीवाद के उदारवादी इष्टिकोण को इस आधार पर आलोचना की जाती है कि यह पैतृक सत्ता के वैचारिक आधारों एवम् परम्पराओं में परिवर्तने में असफल रहा है। इसी तरह यह नस्ल अथवा वर्ग से सम्बन्धित मुद्दों की भी करता रहा है।
2.समाजवादी नारीवाद(Socialist Feminism)
समाजवादी नारोवाद का मानना है कि महिलाओं के उत्पादन तथा वर्गीय ढाँचे में मध है। पश्चिमी समाज कार्य करने वाले पुरुषों को पुरस्कृत करता है क्योंकि वे व्यापार करने क वास्तविक वस्तुओं का निर्माण करते है। इसके विपरीत घरेलू क्षेत्र में महकार्य करने वाली महिलाओं का पश्चिमी समाज में कोई आदर नहीं है क्योंकि महिलाएँ आर्थिक दृष्टि से कोई ठोस उत्पादन नहीं करती। यह स्थिति पुरुषों को स्त्रियों पर नियंत्रण करने का अवसर दे देती है। समाजवादी नारीवादी लेखक इस विचार को रद्द कर देते है कि जीव विज्ञान किसी का जेन्डर पूर्वनिर्धारित करता है। सामाजिक भूमिकाएं वशानुगत नहीं हैं और महिलाओं की सार्वजनिक तथा निजी दोनों क्षेत्रों में स्थिति में परिवर्तन की आवश्यकता है। नारीवाद का यह स्वरूप पूँजीवाद तथा पैतृकसत्ता दोनों को चुनौती देता है। उग्रवादी नारीवाद की तरह समाजवादी नारीवादियों का भी मानना है कि हालांकि महिलाएँ वर्ग नस्ल, प्रजाति तथा धर्म के आधार पर विभाजित है. इसके बावजूद एक नारी होने के नाते सभी का उत्पीड़न समान है और वे एक जैसी यातनाएँ झेलती है, केवल इसलिए कि वे एक महिला है। इनका विश्वास है कि इस प्रकार के उत्पीड़न को केवल वर्तमान लिगंभेद को समाप्त करके ही किया जा सकता है। राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं को पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर कार्य करना चाहिए। अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए उन्हें पुरुषों का बहिष्कार करने के बजाये उनके बाथ मिल कर कार्य करना चाहिए। पुरुष एवम् स्त्री में गठबंधन और इन्हें एक दूसरे को जीवन के सभी क्षेत्रों में समान समझना चाहिए। जहाँ उदारवाद ने व्यक्तिगत महिला के अधिकारों पर ध्यान केन्द्रित किया वहाँ समाजवादी नारीवादी समुदाय के सामाजिक सम्बन्धों के व्यापक संदर्भ पर बल देते है और इसमें जाति, नस्ल प्रजाति तथा अन्य अन्तरों को भी निहित करते हैं।
3.उग्रवादी नारीवाद(Radical Feminism)
नारीवाद के इस स्वरूप का मानना है कि नारी की हीन स्थिति का मूल कारण समाज की बै व्यवस्था है जो आर्थिक तथा राजनीतिक शक्ति का उपयोग करने वाले पुरुष प्रधान वशानुगत व्यवस्था द्वारा निश्चित होती है। यह सामाजिक सम्बन्धों की एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें पुरुष 'एक वर्ग' 'के रूप में नारी 'एक वर्ग' पर अपना शासन जमाता है और नारी को हीन समझा जाता है। अतः समता को समाप्त करने में लिए समाज के मूल ढाँचे को बदलना आवश्यक है। केवल महिलाओं के पक्ष में दो-चार कानून बना देने से काम नहीं चलेगा। नारीवाद के इस स्वरूप को मिडिया द्वारा काफी नकारात्मक आलोचना भी हुई है जिससे नारीवादी विचारधारा को नुकसान भी पहुँचा है। इनका मानना है कि महिलाओं पर प्रभुत्व विश्व में सबसे पुराना तथा सबसे बदतरीन उत्पीड़न रहा है। ऐसा इसलिए है क्योंकि महिलाओं का यह उत्पीडन सारे संसार में तथा विभिन्न नस्लों, प्रजातियों बयाँ तथा संस्कृतियों की समान विशेषता हैं। उग्र नारीवाद पुरुष तथा स्त्री दोनों को उन दृढ़ जेन्डर भूमिकाओं (rigid gender roles) से मुक्त करना चाहता है जो सदियों से समाज ने उन पर आरोपित की हैं। कई उग्रवादी लेखकों का विचार है कि पुरुषों पितृसत्ता तथा लैंगिक व्यवस्था के खिलाफ एक जग नहीं जाये जो स्त्रियों का कही सामाजिक भूमिकाओं में बांध कर रखते है। वे इन सामाजिक जसकाओं तथा पितृसत्ता की पूरी तरह नकारते हैं और कई बार तो ये पुरुषों को भी नकारते हैं। दो पुरुषों से अपने अन्तर पर बल देते हैं और ऐसे समूहों का निर्माण करते हैं जिसमें पुरुषों का पूरी तरह बाहर रखा जाता है। उग्रवादी नारीवाद की आगे दो भागों में बांटा गया उग्रवादी इच्छा स्वातंत्र्यवाडी नारीवाद जिनका विचार है कि नारी तथा प्रजनन महिलाओं के सामाजिक स्तर पर योगदान पर सीमाएँ लगाते हैं। महिलाओं को अनिवार्यतः उपयोलिग (androgynous) होना चाहिए। ये सभी नियमों का उल्लंघन करना चाहते है और यह तर्क देते हैं कि महिला को अपनी सेक्सुयलिटी के प्रत्येक पक्ष को नियन्त्रित करना चाहिए। ये प्रजनन के लिए भी कृत्रिम साधनों के प्रयोग का समर्थन करते हैं ताकि गभाधान में न्यूनतम समय बर्बाद हो और समाज में अन्य सकारात्मक कार्यों के लिए अधिक समय मिल सके। ये गर्भपात, गर्भनिरोध तथा जन्म नियंत्रण के अन्य तरीकों के प्रबल समर्थक है।
दुसरा उग्रवादी सांस्कृतिक नारीवाद का मानना है कि नारों को अपने नारीत्य का आदर करना चाहिए क्योंकि यह पुरुषत्व से बेहतर है। यह सेक्स को पुरुष प्रधान मानता है। ये सेक्स, नारी की अधीनता बलात्कार पोर्न तथा दुर्व्यवहार को अन्तसंवन्धित मानता है जिन्हें जड़ से मिटाने की है। तथापि इसमें एक अन्य विचार यह भी है कि प्रजनन नारी के लिए शक्ति का स्रोत आ। उनका मानना है कि पुरुष स्त्रियों से ईष्या करते है और परिणामस्वरूप इसे कई तकनीको तरीकों में नियन्त्रित करना चाहते है।
4.पारिस्थिकी नारीवाद(Eco-Feminism)
इसका विचार है कि बैठकसत्ता तथा पुरुष अधिपत्य नारी एवम् पर्यावरण दोनों के लिए हानिकारक है। नारी तथा प्रकृति पर प्रभुत्व जमाने की पुरुष को इच्छा के बीच एक अन्तसम्बन्ध है। पुरुष चाहता है कि संपूर्ण शक्ति प्राप्त करने के लिए इन दोनों पर विजय पाना तथा उन्हें पालतु बनाना आवश्यक है। पारिस्थिकी नारीवादियों का विचार है कि पुरुष की यह इच्छा नारी तथा इस पृथ्वी दोनों की बर्बाद कर रही है। इस प्रकृति को सुरक्षित रखने के लिए नारी की भूमिका केन्द्रीयभूत है। क्योंकि में इस प्रकृति को बेहतर समझती है और उसका एक अभिन्न अंग है जैसा कि 'धरती माँ' तथा 'पृथ्वी माँ' जैसे शब्दों से ज्ञात होता है। आवश्यकता नारी को अपनी श्रेष्ठ अन्तशक्ति का प्रयोग करने की है जिससे वह दिख सके कि मानव जाति किस प्रकार एक दूसरे तथा प्रकृति के साथ मिल जुल कर रह सकती है।
4.अश्वेत नारीवाद(Black Feminism)
नारीवाद के इस रूप का तर्क है कि सेक्स तथा नस्लवाद भी एक दूसरे से गुथे हुये हैं। नारीवाद के रूप जो लिंग एवम् वर्ग शोषण से मुक्ति पाना चाहते हैं परन्तु नस्ल की अपज्ञा करते हैं. कई. के साथ महिलाओं समेत भेदभाव कर सकते है। अश्वेत नारीवाद का दावा है कि नारीवादी आन्दोलन अभी तक श्वेत मध्यवर्गीय आन्दोलन रहे हैं जिन्होंने वर्ग एवम् नस्ल के आधार पर होने वाले उत्पीड़न की अवज्ञा की है। अश्वेत महिलाओं को श्वेत महिलाओं से एक अन्य परन्तु तीव्र प्रकार के उत्पीड़न का अनुभव होता है।
5.सांस्कृतिक नारीवाद - (Cultural Feminisn)
इनका मानना है कि पुरुष एवम् स्त्री में मौलिक तथा जैविक अन्तर है और महिलाओं को अपने इस अन्तर एवम् विशिष्टता पर गर्व होना चाहिए। महिलाएं स्वभाव से अधिक दयालु तथा ईमानदार होती है। सांस्कृतिक नारीवादियों का दावा है कि अपनी इन विशिष्टताओं के कारण यदि महिलाओं को शासन करने का अवसर दिया जाए तो इस धरती से युद्ध समाप्त हो जायेंगे और यह एक बेहतर स्थान हो जायेगा। अनिवार्यतः नारी के सोचने का तरीका सही और सभी के लिए बेहतर होता है। जहाँ पश्चिमी समाज स्वतंत्रता, स्तरीय सौपान, प्रतिस्पर्धा तथा प्रभुत्व जैसे पुरुष प्रधान मूल्यों को महत्त्व देता है, वहाँ सांस्कृतिक नारीवाद अन्योन्याश्रय सहयोग सम्बन्ध, समुदाय, शान्ति, विश्वास, साझापन जैसे मूल्यों पर बल देता है। परन्तु इनका कहना है कि दुर्भाग्य से इनके विचारों को आधुनिक पश्चिमी समाज कोई महत्त्व नहीं देता। सांस्कृतिक नारीवाद अधिकतर गैर-राजनीतिक है। व्यक्तिक परिवर्तनों या समाज को प्रभावित करने या उसमें सुधार करने के बजाय ये परिवर्तन के लिए पृथक नारीवाद समानस्तर संस्कृति (counter-culture) का समर्थन करते हैं।
नारीवाद के विभिन्न मुद्दे।
यद्यपि नारीवाद आंतरिक रूप से तीन धाराओं या दृष्टिकोणों में विभाजित है तथापि एक विचारधारा के रूप में इसके प्रमुख विचारणीय विषय या बिन्दु निम्न है जो इसे अन्य सभी स्थापित राजनीतिक विचारधाराओं से अलग करती है:
नारीवाद के स्वरूप (Forms of Feminism)
नारीवादी विचारधारा कई स्वरूपों में अभिव्यक्त हुई है। 1970 के दशक में महिला लेखकों मे एक ऐसे सिद्धान्त का विकास किया जिसने महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों की व्याख्या करने में सहायता की। कई स्थानों पर का विरोध करने तथा चुनौती देने के लिए उभरने लगी। 1980 के दशक में नारीवाद से जुड़े मुद्दों को लेकर विभिन्न लेखकों एवम् आन्दोलनकारियों में काफी मतभेद उभरने लगे। नारीवाद जो कभी एक सिद्धान्त था. धीरे-धीरे कई सिद्धान्तों में घटने लगा जो नारीवाद के अलग-अलग मुद्दों पर बल दे रहे थे। नारीवाद की प्रत्येक परिभाषा कई तत्त्वों पर निर्भर करने लगी-जैसे लेखक की अपनी मान्यता, इतिहास, संस्कृति आदि। परिणामस्वरूप आज इस नारीवाद के कई स्वरूप पहचान सकते है। इनमें प्रमुख हैं उदारवादी समाजवादी उग्रवादी, इच्णास्वातंत्र्यवादी अश्वेत तथा पारिस्थिकी नारीवाद।
1.उदारवादी नारीवाद(Liberal Feminism)
यह 1950 तथा 1960 के दशकों में काफी लोकप्रिय था जब कई प्रकार के नागरिक अधिकार आन्दोलन चल रहे थे। उदारवादी नारीवाद का प्रमुख विचार यह है कि सभी व्यक्तियों को ईश्वर ने समान पैदा किया है और सभी समान अधिकारों के हकदार है। इनका मानना है कि समाज में नारी उत्पीड़न का मुख्य कारण वह परम्पराएँ तथा व्यवहार है जिनके माध्यम से पुरुष एवम् स्त्री का समाजीकरण होता है, जिसमें पैतृक सत्ता का समर्थन किया जाता है और जो पुरुषों को शक्ति के पदों पर रखती है। उदारवादियों का विचार है कि नारी में भी पुरुष के समान हो बौद्धिक योग्यता होती है। अतः समाज के आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक क्षेत्रों में उसे समान अवसर दिये जाने चाहिए। महिलाओं को अपना जीवन खुद चुनने का अधिकार होना चाहिए न कि उनके लिंग के कारण इसे किसी दूसरे द्वारा चुना जाना चाहिए। अनिवार्यतः महिलाएँ भी पुरुषों की हो तरह होनी चाहिए। उदारवादी नारीवाद उन सभी प्रकार के कानूनों के निर्माण का समर्थन करता है जो नारी के जीवन के मार्ग में आने वाले अवरोधों को हटाने में मदद करते है। इस प्रकार के कानून महिलाओं के लिए समान अवसर तथा समान अधिकारों की मांग करते हैं जैसे नौकरियों तक समान पहुँच तथा समान वेतन। उदारवादियों का मानना है कि इन प्रकार के अवरोधों की समाप्ती सीधे तौर से पैतृक सत्ता को चुनौती देते है और वे नारी की स्वतंत्रता में वृद्धि करते हैं। उदारवादी नारीवादियों को कई ऐसे कानूनों का श्रेय दिया जा सकता है जिन्होंने समाज में स्त्री की स्थिति में अपेक्षाकृत सुधार किया है जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, जनकल्याण जैसे क्षेत्रों में सुधार तथापि पैतृक सत्ता के विरुद्ध संघर्ष में उदारवादियों ने स्वयं को केवल कानून निर्माण प्रक्रिया तक सीमित रखा है। नारीवाद के उदारवादी इष्टिकोण को इस आधार पर आलोचना की जाती है कि यह पैतृक सत्ता के वैचारिक आधारों एवम् परम्पराओं में परिवर्तने में असफल रहा है। इसी तरह यह नस्ल अथवा वर्ग से सम्बन्धित मुद्दों की भी करता रहा है।
2.समाजवादी नारीवाद(Socialist Feminism)
समाजवादी नारोवाद का मानना है कि महिलाओं के उत्पादन तथा वर्गीय ढाँचे में मध है। पश्चिमी समाज कार्य करने वाले पुरुषों को पुरस्कृत करता है क्योंकि वे व्यापार करने क वास्तविक वस्तुओं का निर्माण करते है। इसके विपरीत घरेलू क्षेत्र में महकार्य करने वाली महिलाओं का पश्चिमी समाज में कोई आदर नहीं है क्योंकि महिलाएँ आर्थिक दृष्टि से कोई ठोस उत्पादन नहीं करती। यह स्थिति पुरुषों को स्त्रियों पर नियंत्रण करने का अवसर दे देती है। समाजवादी नारीवादी लेखक इस विचार को रद्द कर देते है कि जीव विज्ञान किसी का जेन्डर पूर्वनिर्धारित करता है। सामाजिक भूमिकाएं वशानुगत नहीं हैं और महिलाओं की सार्वजनिक तथा निजी दोनों क्षेत्रों में स्थिति में परिवर्तन की आवश्यकता है। नारीवाद का यह स्वरूप पूँजीवाद तथा पैतृकसत्ता दोनों को चुनौती देता है। उग्रवादी नारीवाद की तरह समाजवादी नारीवादियों का भी मानना है कि हालांकि महिलाएँ वर्ग नस्ल, प्रजाति तथा धर्म के आधार पर विभाजित है. इसके बावजूद एक नारी होने के नाते सभी का उत्पीड़न समान है और वे एक जैसी यातनाएँ झेलती है, केवल इसलिए कि वे एक महिला है। इनका विश्वास है कि इस प्रकार के उत्पीड़न को केवल वर्तमान लिगंभेद को समाप्त करके ही किया जा सकता है। राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं को पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर कार्य करना चाहिए। अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए उन्हें पुरुषों का बहिष्कार करने के बजाये उनके बाथ मिल कर कार्य करना चाहिए। पुरुष एवम् स्त्री में गठबंधन और इन्हें एक दूसरे को जीवन के सभी क्षेत्रों में समान समझना चाहिए। जहाँ उदारवाद ने व्यक्तिगत महिला के अधिकारों पर ध्यान केन्द्रित किया वहाँ समाजवादी नारीवादी समुदाय के सामाजिक सम्बन्धों के व्यापक संदर्भ पर बल देते है और इसमें जाति, नस्ल प्रजाति तथा अन्य अन्तरों को भी निहित करते हैं।
3.उग्रवादी नारीवाद(Radical Feminism)
नारीवाद के इस स्वरूप का मानना है कि नारी की हीन स्थिति का मूल कारण समाज की बै व्यवस्था है जो आर्थिक तथा राजनीतिक शक्ति का उपयोग करने वाले पुरुष प्रधान वशानुगत व्यवस्था द्वारा निश्चित होती है। यह सामाजिक सम्बन्धों की एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें पुरुष 'एक वर्ग' 'के रूप में नारी 'एक वर्ग' पर अपना शासन जमाता है और नारी को हीन समझा जाता है। अतः समता को समाप्त करने में लिए समाज के मूल ढाँचे को बदलना आवश्यक है। केवल महिलाओं के पक्ष में दो-चार कानून बना देने से काम नहीं चलेगा। नारीवाद के इस स्वरूप को मिडिया द्वारा काफी नकारात्मक आलोचना भी हुई है जिससे नारीवादी विचारधारा को नुकसान भी पहुँचा है। इनका मानना है कि महिलाओं पर प्रभुत्व विश्व में सबसे पुराना तथा सबसे बदतरीन उत्पीड़न रहा है। ऐसा इसलिए है क्योंकि महिलाओं का यह उत्पीडन सारे संसार में तथा विभिन्न नस्लों, प्रजातियों बयाँ तथा संस्कृतियों की समान विशेषता हैं। उग्र नारीवाद पुरुष तथा स्त्री दोनों को उन दृढ़ जेन्डर भूमिकाओं (rigid gender roles) से मुक्त करना चाहता है जो सदियों से समाज ने उन पर आरोपित की हैं। कई उग्रवादी लेखकों का विचार है कि पुरुषों पितृसत्ता तथा लैंगिक व्यवस्था के खिलाफ एक जग नहीं जाये जो स्त्रियों का कही सामाजिक भूमिकाओं में बांध कर रखते है। वे इन सामाजिक जसकाओं तथा पितृसत्ता की पूरी तरह नकारते हैं और कई बार तो ये पुरुषों को भी नकारते हैं। दो पुरुषों से अपने अन्तर पर बल देते हैं और ऐसे समूहों का निर्माण करते हैं जिसमें पुरुषों का पूरी तरह बाहर रखा जाता है। उग्रवादी नारीवाद की आगे दो भागों में बांटा गया उग्रवादी इच्छा स्वातंत्र्यवाडी नारीवाद जिनका विचार है कि नारी तथा प्रजनन महिलाओं के सामाजिक स्तर पर योगदान पर सीमाएँ लगाते हैं। महिलाओं को अनिवार्यतः उपयोलिग (androgynous) होना चाहिए। ये सभी नियमों का उल्लंघन करना चाहते है और यह तर्क देते हैं कि महिला को अपनी सेक्सुयलिटी के प्रत्येक पक्ष को नियन्त्रित करना चाहिए। ये प्रजनन के लिए भी कृत्रिम साधनों के प्रयोग का समर्थन करते हैं ताकि गभाधान में न्यूनतम समय बर्बाद हो और समाज में अन्य सकारात्मक कार्यों के लिए अधिक समय मिल सके। ये गर्भपात, गर्भनिरोध तथा जन्म नियंत्रण के अन्य तरीकों के प्रबल समर्थक है।
दुसरा उग्रवादी सांस्कृतिक नारीवाद का मानना है कि नारों को अपने नारीत्य का आदर करना चाहिए क्योंकि यह पुरुषत्व से बेहतर है। यह सेक्स को पुरुष प्रधान मानता है। ये सेक्स, नारी की अधीनता बलात्कार पोर्न तथा दुर्व्यवहार को अन्तसंवन्धित मानता है जिन्हें जड़ से मिटाने की है। तथापि इसमें एक अन्य विचार यह भी है कि प्रजनन नारी के लिए शक्ति का स्रोत आ। उनका मानना है कि पुरुष स्त्रियों से ईष्या करते है और परिणामस्वरूप इसे कई तकनीको तरीकों में नियन्त्रित करना चाहते है।
4.पारिस्थिकी नारीवाद(Eco-Feminism)
इसका विचार है कि बैठकसत्ता तथा पुरुष अधिपत्य नारी एवम् पर्यावरण दोनों के लिए हानिकारक है। नारी तथा प्रकृति पर प्रभुत्व जमाने की पुरुष को इच्छा के बीच एक अन्तसम्बन्ध है। पुरुष चाहता है कि संपूर्ण शक्ति प्राप्त करने के लिए इन दोनों पर विजय पाना तथा उन्हें पालतु बनाना आवश्यक है। पारिस्थिकी नारीवादियों का विचार है कि पुरुष की यह इच्छा नारी तथा इस पृथ्वी दोनों की बर्बाद कर रही है। इस प्रकृति को सुरक्षित रखने के लिए नारी की भूमिका केन्द्रीयभूत है। क्योंकि में इस प्रकृति को बेहतर समझती है और उसका एक अभिन्न अंग है जैसा कि 'धरती माँ' तथा 'पृथ्वी माँ' जैसे शब्दों से ज्ञात होता है। आवश्यकता नारी को अपनी श्रेष्ठ अन्तशक्ति का प्रयोग करने की है जिससे वह दिख सके कि मानव जाति किस प्रकार एक दूसरे तथा प्रकृति के साथ मिल जुल कर रह सकती है।
4.अश्वेत नारीवाद(Black Feminism)
नारीवाद के इस रूप का तर्क है कि सेक्स तथा नस्लवाद भी एक दूसरे से गुथे हुये हैं। नारीवाद के रूप जो लिंग एवम् वर्ग शोषण से मुक्ति पाना चाहते हैं परन्तु नस्ल की अपज्ञा करते हैं. कई. के साथ महिलाओं समेत भेदभाव कर सकते है। अश्वेत नारीवाद का दावा है कि नारीवादी आन्दोलन अभी तक श्वेत मध्यवर्गीय आन्दोलन रहे हैं जिन्होंने वर्ग एवम् नस्ल के आधार पर होने वाले उत्पीड़न की अवज्ञा की है। अश्वेत महिलाओं को श्वेत महिलाओं से एक अन्य परन्तु तीव्र प्रकार के उत्पीड़न का अनुभव होता है।
5.सांस्कृतिक नारीवाद - (Cultural Feminisn)
इनका मानना है कि पुरुष एवम् स्त्री में मौलिक तथा जैविक अन्तर है और महिलाओं को अपने इस अन्तर एवम् विशिष्टता पर गर्व होना चाहिए। महिलाएं स्वभाव से अधिक दयालु तथा ईमानदार होती है। सांस्कृतिक नारीवादियों का दावा है कि अपनी इन विशिष्टताओं के कारण यदि महिलाओं को शासन करने का अवसर दिया जाए तो इस धरती से युद्ध समाप्त हो जायेंगे और यह एक बेहतर स्थान हो जायेगा। अनिवार्यतः नारी के सोचने का तरीका सही और सभी के लिए बेहतर होता है। जहाँ पश्चिमी समाज स्वतंत्रता, स्तरीय सौपान, प्रतिस्पर्धा तथा प्रभुत्व जैसे पुरुष प्रधान मूल्यों को महत्त्व देता है, वहाँ सांस्कृतिक नारीवाद अन्योन्याश्रय सहयोग सम्बन्ध, समुदाय, शान्ति, विश्वास, साझापन जैसे मूल्यों पर बल देता है। परन्तु इनका कहना है कि दुर्भाग्य से इनके विचारों को आधुनिक पश्चिमी समाज कोई महत्त्व नहीं देता। सांस्कृतिक नारीवाद अधिकतर गैर-राजनीतिक है। व्यक्तिक परिवर्तनों या समाज को प्रभावित करने या उसमें सुधार करने के बजाय ये परिवर्तन के लिए पृथक नारीवाद समानस्तर संस्कृति (counter-culture) का समर्थन करते हैं।
नारीवाद के विभिन्न मुद्दे।
यद्यपि नारीवाद आंतरिक रूप से तीन धाराओं या दृष्टिकोणों में विभाजित है तथापि एक विचारधारा के रूप में इसके प्रमुख विचारणीय विषय या बिन्दु निम्न है जो इसे अन्य सभी स्थापित राजनीतिक विचारधाराओं से अलग करती है:
- 1. पितृसत्तात्मक - नारीवादी पितृसत्तात्मकता को स्त्री व पुरुष के मध्य के सम्बन्धों को निरूपित करने वाली एक महत्त्वपूर्ण अवधारणा मानते है। उनके अनुसार पितृसत्तात्मकता का अर्थ है पुरुष द्वारा प्रमुखता की भूमिका निभाना। परिवार में पिता की भूमिका पुरुष की शक्ति सत्ता और अधिकार को प्रदर्शित करती है और अगर हम समाज को परिवार मानें तो समाज में भी इसी प्रकार का व्यवहार होता है। नारीवादियों के अनुसार पितृसत्तात्मकता एक पद सोपानिय व्यवस्था को जन्म देता है जिसमें पीढ़ियों के आधार पर और लिंग के आधार पर अधिपत्य स्वीकार किया जाता है। इनके अनुसार पितृसत्तात्मकता एक विचार है न की ऐतिहासिक सच्चाई जिसके द्वारा स्त्रियों पर अधिपत्य जमाया जाता है उनका शोषण किया जाता हैं अधिकांश नारीवादी विचारक अधिकारों के असमान वितरण तथा आर्थिक असमानता को इसका महत्वपूर्ण कारण मानते है।
- 2. समानता विभेद:- नारीवाद का मूल लक्ष्य या उद्देश्य पितृसत्तात्मक समाज को समाप्त करना है। नारीवाद में पुरुष समानता के लिए आन्दोलन किये गये। इसके अनुसार स्त्री व पुरुष में यद्यपि सेक्स की समानता नहीं हो सकती लेकिन राजनीतिक व कानूनी रूप से सार्वजनिक क्षेत्र में दोनों के कार्य करने और उनके अवसरों को प्राप्त करने की समानता होना चाहिए। उदार नारीवादी इसका समर्थन करते है। समाजवादी नारीवादी आर्थिक शक्ति के रूप में स्त्री व पुरुष की समानतापर बल देते है वहीं अतिवादी नारीवादी परिवार व निजी जीवन में समानता पर बल देता है। उनके अनुसार बच्चों की देखभाल करने एवं अन्य घरेलू कार्यों में स्त्री-पुरुष में समानता होना चाहिए।
- 3. सेक्स व लैंगिकता :- नारीवाद के विरुद्ध सबसे प्रमुख तक्र ही यह दिया जाता है कि समाज में लिंग पर आधारित विभाजन प्राकृतिक है। स्त्री और पुरुष दोनों ही समाज में वह भूमिका निभाते है जो प्रकृति ने उनको प्रदान की है। नारीवादी इन तर्कों को स्वीकार नहं करते। एक स्त्री का मस्तिष्क चाहे पुरुष के मस्तिष्क से आकार में छोटा हो लेकिन उसके शरी के प्रतिशत से बड़ा है जो उसको बुद्धिमान बनाता है। स्त्रियां शारीरिक रूप से पुरुषों की तुलनामे निर्बल हो किन्तु शारीरिक क्षमता कृषि प्रधान या उद्योग प्रधान समाजों में महत्व रखती थी किन्तु आज के कम्प्यूटर जनित विश्व में शारीरिक क्षमता अधिक महत्त्व नहीं रखती। इस प्रकार नारीवादी शारीरिक बनावट को भाग्य मानने से इन्कार करते है। इसी प्रकार वे सेक्स और जेंडर में भी अंतर करते है। उनका मानना है कि सेक्स के अनुसार स्त्री व पुरुष में भेद होता है और यह प्राकृतिक भी है जिसे परिवर्तित नहीं किया जा सकता किन्तु जेंडर एक सांस्कृतिक अवधारणा है जो समाज में स्त्री व पुरूष की भूमिकाओं को निर्धारित करता है। इसी कारण प्रसिद्ध नारीवादी विचारक सीमान डी बुआ ने लिखा है कि "स्त्रियां बनाई जाती है पैदा नहीं होती।"
- 4. सार्वजनिक निजी विभाजन - परम्परागत रूप से राजनीति को सार्वजनिक क्षेत्र में माना जाता था क्योंकि यह सार्वजनिक बहस में परिलक्षित होती थी व परिवार तथा व्यक्तिगत सम्बन्धों को निजी क्षेत्र में माना जाता था नारीवादी इस विभाजन को स्वीकार नहीं करते। परम्परागत रूप से राजनीति व्यवसाय, कला, साहित्य को सार्वजनिक क्षेत्र में स्वीकार करते हुए पुरूषों के लिए उपयुक्त माना गया जबकि स्त्रियों को निजी क्षेत्र के लिए उपयुक्त मानते हुए उन्हें घरेलू जिम्मेदारियों के लिए छोड़ दिया गया। प्रसिद्ध नारीवादी विचारक ज्यां बी एलेस्टीन ने अपनी पुस्तक "Public Man private woman" में इस विषय का विशद वर्णन किया। इन विचारकों का मानना है की यह विभाजन स्त्रियों को घरों तक सीमित रखने का एक माध्यम है। यह विभाजन गलत है क्योंकि यह स्त्रियों को शिक्षा कार्य व राजनीतिक जीवन में पहुंच को सीमित करता है।
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