भारत में पंचायती राज की भूमिका
(Role of Panchayati Raj in India)
भारत में ग्राम पंचायतों का इतिहास बहुत पुराना है। प्राचीन काल में आपसी झगड़ों का फैसला पंचायतें ही करती थीं। परन्तु अंग्रेजी राज के जमाने में पंचायतें धीरे-धीरे समाप्त हो गयीं और सब काम प्रान्तीय सरकारें करने लगीं। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद राज्यों की सरकारों ने पंचायतों की स्थापना की और विशेष ध्यान दिया। प्रो० रजनी कोठारी के अनुसार, "राष्ट्रीय नेत त्व का एक दूरदर्शितापूर्ण कार्य था पंचायती राज की स्थापना। इसमें भारतीय राज व्यवस्था का विकेन्द्रीकरण हो रहा है और देश में एक-सी स्थानीय संस्था के निर्माण से उसकी एकता भी बढ़ रही है।" इसकी शुरूआत का श्रेय श्री जवाहर लाल नेहरू को है। पं० नेहरू का कहना था कि "गांवों के लोगों को अधिकार सौंपना चाहिए। उनको काम करने दो चाहे वे हजारों गलतियां करें। इससे घबराने की जरूरत नहीं पंचायतों को अधिकार दो।"
नेहरू को लोकतान्त्रिक तरीकों में अटूट विश्वास था। सन् 1952 में उन्हीं की पहल पर सामुदायिक विकास कार्यक्रम आरम्भ हुआ। इसमें काफी संख्या में सरकारी कर्मचारी रखे गए और लम्बे-लम्बे दावे किए गए। यह समझा गया कि इस कार्यक्रम में जनता की ओर से सक्रिय रुचि से भाग लिया जाएगा। सामुदायिक विकास कार्यक्रम का आरम्भ इसलिए किया गया था ताकि आर्थिक नियोजन एवं सामाजिक पुनरुद्धार की राष्ट्रीय योजनाओं के प्रति देशों की ग्रामीण जनता में सक्रिय रुचि पैदा की जा सके। परन्तु सामुदायिक विकास के इस सरकार द्वारा प्रेरित एवं प्रायोजित कार्यक्रम ने ग्रामीण जनता को नियोजन की परिधि में लाकर खड़ा कर दिया, परन्तु ग्रामीण स्तर पर योजना के क्रियान्वयन में उसे 'इच्छुक पक्ष नहीं बनाया जा सका। यह कार्यक्रम सरकारी तन्त्र और ग्रामीण जनता के बीच की दूरी कम करने के मुख्य उद्देश्य में विफल रहा। इस विफलता का मुख्य कारण यह था कि इसे सरकारी महकमे की तरह चलाया गया और गांवों के विकास के बजाय सामुदायिक विकास की सरकारी मशीनरी के विस्तार पर ही ज्यादा जोर दिया गया। सरकारी मशीनरी के द्वारा गांवों के लोगों की मनोव त्ति को बदलने की आशा की गयी; परिणाम यह हुआ कि गांवों के उत्पादन के लिए खुद प्रयत्न करने के बजाए ग्रामीण जनता सरकार का मुंह ताकने लगी। एक अमेरिकी लेखक रेनहाई बेंडिक्स लिखते हैं, "सामुदायिक विकास की सबसे बड़ी कमजोरी उसका सरकारी स्वरूप और नेताओं की लफ्फाजी थी। एक तरफ इस कार्यक्रम के सूत्रधार जनता से आगे आने की आशा करते थे, दूसरी ओर उनका विश्वास था कि सरकारी कार्यवाही से ही नतीजा निकल सकता है। कार्यक्रम जनता को चलाना लेकिन वे बनाए ऊपर से जाते थे।"
इन बुराइयों को दूर करने का उपाय यह था कि वास्तविक सत्ता सम्पन्न लोकतन्त्रीय स्थानीय संस्थाओं को शुरू कर स्थानीय राजनीति के विष को काबू में किया जाए। बहुत-से लोगों का विचार था कि पंचायत राज इसका इलाज हो सकता है जो इसके साथ ही प्रशासकीय तनाव को भी समाप्त कर देगा पंचायत राज की बुराइयों के लिए रामबाण जैसे गुणों से सम्पन्न 1 साधन मानने का कुछ सम्बन्ध गांधीजी की यादों और जयप्रकाश नारायण द्वारा उन्हें पुनर्जीवित करने से है। जयप्रकाश नारायण ने पंचायती राज को देशी और प्राचीन 'सामुदायिक लोकतन्त्र' के समान बताया और साथ ही इसे पश्चिम के 'जनता का हाथ बंटाने का अवसर देने वाले लोकतन्त्र' (Participating Democracy) से भी अधिक आधुनिक कहा।
वस्तुतः ग्रामीण विकास की अनिवार्य आवश्यकताओं ने ही वर्तमान रूप में पंचायती राज संस्थाओं की सष्टि की थी। सामुदायिक विकास कार्यक्रम के समय ऐसा अनुभव किया गया कि लोगों की सहभागिता के बिना ग्रामीण समुदाय का पुनर्निर्माण सम्भव नहीं है और वह सहभागिता केवल पंचायती राज संस्थाओं के ही माध्यम से प्राप्त की जा सकती है।
बलवन्तराय मेहता समिति प्रतिवेदन
(Balwantrai Mehta Committee Report)
सामुदायिक विकास कार्यक्रम पर काफी खर्च हो चुकने और इसकी सफलता के लम्बे-चौड़े दावों के बाद इसकी जांच के लिए एक अध्ययन दल 1957 में नियुक्त किया गया। इस अध्ययन दल के अध्यक्ष श्री बलवन्तराय मेहता थे। अध्ययन दल को संपि गए कार्यों में, एक कार्य जिसका कि दल को अध्ययन करना था, यह था कि 'कार्य सम्पादन में अधिक तीव्रता लाने के उद्देश्य से कार्यक्रम का संगठनात्मक ढांचा तथा कार्य करने के तरीके कहां तक उपयुक्त थे। इस दल ने सरकार को बताया कि सामुदायिक विकास कार्यक्रम की बुनियादी त्रुटि यह है कि जनता का इसमें सहयोग नहीं मिला। अध्ययन दल ने सुझाव दिया कि एक कार्यक्रम को, जिसका कि लोगों के दिन-प्रतिदिन के जीवन से सम्बन्ध है, केवल उन लोगों के द्वारा ही कार्यान्वित किया जा सकता है। इस अध्ययन दल की रिपोर्ट में यह कहा गया कि जब तक स्थानीय नेताओं को जिम्मेदारी और अधिकार नहीं साँपे जाते संविधान के निदेशक सिद्धान्तों का राजनीतिक और विकास सम्बन्धी लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता। 'मेहता अध्ययन दल' ने 1957 के अन्त में अपनी रिपोर्ट में यह सिफारिश की कि लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण और सामुदायिक विकास कार्यक्रम को सफल बनाने हेतु पंचायती राज संस्थाओं की तुरन्त शुरूआत की जानी चाहिए। इस अध्ययन दल ने इसे 'लोकतन्त्रीय विकेन्द्रीकरण' का नाम दिया।
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