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सामाजिक न्याय (Social Justice),सामाजिक न्याय के विषय में अम्बेडकर के विचार (Ambedkar's view on Social Justice)

सामाजिक न्याय क्या है?

(What is Social Justice)


सामाजिक न्याय से अर्थ यह है कि किसी देश में रह रहे व्यक्तियों में  जाति, जन्म, रंग, नस्ल आदि के आधार पर किसी भी तरह भेदभाव न किया जाए। जिस समाज में जन्म, जाति अथवा रंग आदि के आधार पर कुछ लोगों को विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं, उस समाज में सामाजिक न्याय की प्राप्ति नहीं हो सकती। सामाजिक न्याय उस समाज में भी संभव नहीं हो सकता, जहाँ लोगों में अत्यधिक आर्थिक अंतर है अथवा जहाँ व्यक्ति द्वारा व्यक्ति का शोषण होता हो

1. क़ानून के समक्ष समानताः सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए यह बहुत आवश्यक है कि क़ानून की दृष्टि से सभी लोगों को समान समझा जाए। कानून के संसार में किसी व्यक्ति में जन्म, जाति, रंग, नस्ल आदि के आधार पर कोई विशेष रियायत अथवा भेदभाव न किया जाए।
2. विशेषाधिकारों की समाप्तिः सामाजिक न्याय तभी ही लोगों को प्राप्त हो सकता है, यदि किसी भी वर्ग के लोगों को सरकार द्वारा विशेष सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं, तो ऐसे देश में सामाजिक न्याय की प्राप्ति संभव नहीं हो सकती। सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए सामाजिक समानता की स्थापना आवश्यक है। यदि किसी विशेष वर्ग को सरकार द्वारा  रियायतें दी जाती रहेगी तो ऐसे देश में सामाजिक समानता की कल्पना भी नहीं की जा सकेगी।

3. जाति प्रथा का अंतः प्रकृति ने जाति के आधार पर मनुष्यों में कोई बाँट नहीं की। इस बात की अपेक्षा संसार के अनेक देशों में जाति के आधार पर मनुष्य अपने साथी मनुष्यों से घृणा करता है। हमारा अपना देश इस अमानवीय कुरीति का चिरकाल तक शिकार रहा है और वर्तमान समय में भी जाति के नाम पर हरिजन भाइयों से भेदभाव किया जाता है। सामाजिक न्याय तभी ही प्राप्त हो सकता है, यदि जाति प्रथा को बिल्कुल समाप्त कर दिया जाए और लोग जाति के नाम पर अपने साथियों के भेदभाव करना बंद कर दें।

4. पिछड़े वर्ग के लोगों को विशेष सुविधाएँ: सामाजिक समानता तभी स्थापित हो सकती है, यदि पिछड़े वर्गों के लोगों को विकास करने के लिए कुछ विशेष सुविधाएँ दी जाएँ। ये विशेष सुविधाएँ या रियायतें स्थायी रूप में नहीं होनी चाहिए अपितु कुछ सीमित समय के लिए दी जानी चाहिए। इन विशेष सुविधाओं का उद्देश्य यह होता है कि पिछड़े वर्गों के लोग इन सुविधाओं के आधार पर दूसरे उत्पन्न वर्गों के समान विकास कर सकें।

5. लोकतांत्रिक प्रणाली: सामाजिक न्याय वास्तविक अर्थों में तभी प्राप्त हो सकता है यदि लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को ग्रहण किया जाए। लोकतांत्रिक प्रणाली में प्रत्येक प्रकार के अधिकार सभी लोगों को समान रूप में प्राप्त होते हैं और किसी विशेष वर्ग के लोगों को कोई विशेष सुविधाएँ अथवा रियायतें प्रदान नहीं की जातीं । लोकतांत्रिक प्रणाली में कुछ समय के पश्चात् आम चुनाव करवाए जाते हैं और ऐसे चुनावों में देश के समूचे नागरिक समान रूप में भाग लेते हैं। यदि इन सभी व्यवसायों को क्रियान्वित रूप दिया जाए तो बिना किसी संदेह के सामाजिक न्याय की प्राप्ति हो सकती है।

6. आर्थिक सुरक्षा: बिना आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के  किसी भी व्यक्ति के लिए संतुष्ट जीवन व्यतीत करना लगभग नामुमकिन होता है। प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यता और कार्यक्षमता अनुसार काम देना सरकार का आवश्यक कर्तव्य होना चाहिए। जब तक सरकार किसी व्यक्ति को काम प्रदान नहीं करती, तब तक व्यक्ति की आर्थिक सुरक्षा का उत्तरदायित्व सरकार पर होना चाहिए। आर्थिक सुरक्षा से भावार्थ यह है कि सरकार ऐसे व्यक्तियों को बेरोजगारी भत्ता दे ताकि बेरोज़गार व्यक्ति अपने जीवन की प्रारंभिक आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकें। इसके अतिरिक्त सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए यह भी आवश्यक है कि बीमारों, बुजुर्गों और अंगहीनों की आर्थिक सुरक्षा का उत्तरदायित्व सरकार के आवश्यक कर्तव्यों में शामिल ।
 

7. श्रमिकों के हितों की रक्षाः सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि श्रमिकों के हितों की रक्षा की जाए। इस उद्देश्य के लिए श्रमिकों के कार्य का अधिक-से-अधिक समय निश्चित किया जाना अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त श्रमिकों के उचित वेतन तथा अन्य अनेक सुविधाओं की व्यवस्था करनी अनिवार्य है। जब तक श्रमिकों के हितों की सुरक्षा के लिए सरकार कोई विशेष प्रयत्न नहीं करती, तब तक सामाजिक न्याय की प्राप्ति संभव नहीं हो सकती।

सामाजिक न्याय के विषय में अम्बेडकर के विचार (Ambedkar's view on Social Justice)

डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर (बाबा साहिब अम्बेडकर) (1891-1956) आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिंतक, बुद्धिजीवी, मानवतावादी, दलितों के मसीहा तथा सामाजिक न्याय के संघर्षशील योद्धा थे। वह भारतीय संविधान के प्रमुख निर्माता के रूप में भी जाने जाते हैं।

उन्होंने हिन्दुओं में अस्पृश्य मानी जाने वाली जातियों को संगठित करके उन्हें सामाजिक तथा राजनीतिक न्याय हेतु संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया। स्वयं अस्पृश्य (महार) जाति में जन्म लेकर उन्होंने निरंतर संघर्ष तथा आत्मविश्वास के बल पर उच्च शिक्षा ग्रहण की। जातिवाद तथा छुआछूत के कारण बाल्यकाल से ही उन्हें अपमान तथा उत्पीड़न का सामना करना पड़ा, जिसका प्रभाव बाद में उनके विचारों पर पड़ना स्वाभाविक था। कोलम्बिया विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा ग्रहण करते हुए उन्होंने समानता के व्यवहार का अनुभव किया, जो भारत में उनके लिए वर्जित था ! अब्राहम लिंकन तथा वाशिंगटन के विचारों का भी उन पर गहरा प्रभाव पड़ा। वह कबीर की भक्ति फूले के समाज सुधार तथा साबू महाराज के ब्राह्मणवाद के विरुद्ध संघर्ष से भी प्रभावित थे। अम्बेडकर विचारधारा पर लोकतंत्र, समानता, स्वतंत्रता एक भ्रातृत्व के पाश्चात्य विचारों का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। अपने अमेरिकी प्रवास के दौरान वह रंगभेद की नीति का विरोध करने वाले चौदहवें संशोधन से अत्यधिक प्रभावित हुए थे। इससे उन्हें भारत में दलितों का उद्धार करते हेतु संघर्ष करने की प्रेरणा मिली। उनका मत था कि दलितों को स्वतंत्र जीवनयापन हेतु सक्षम बनाने में मन द्वारा निर्मित नियम नहीं, बल्कि संवैधानिक सुरक्षा के उपाय ही सहायक होंगे। उनके द्वारा लिखी गई अनेक कृतियों में 'जाति प्रथा' का उन्मूलन (Annihilation of Caste), 'शूद्र कौन थे' (Who were the Shudras ? ) तथा 'अस्पृश्य जातियाँ' (The Untouchable) सामाजिक न्याय की दिशा में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान माना जाता है।

हिन्दू सामाजिक व्यवस्था: वर्ण-व्यवस्था का खण्डन

अम्बेडकर सामाजिक क्रांतिकारी थे। वह हिन्दुओं, विशेषतः ब्राह्मणों के हाथों अपमानित होने वाले दलित वर्ग के उद्धारक थे। उन्होंने दलित समुदाय को तिरस्कार तथा अधीनता के उस दलदल में से उबारा जिसमें धर्मान्ध तथा धर्म के ठेकेदार ब्राह्मणों ने उन्हें फँसा दिया था। तिलक की तरह उनका मत था कि प्रत्येक को अपने अधिकार के लिए संघर्ष करना पड़ता है। अधिकार दान में नहीं दिए जाते। इसी प्रकार प्रत्येक को पूर्वस्थापित सामाजिक संरचना, रीति-रिवाजों विश्वासों व व्यवहार के विरुद्ध लड़ना होगा।

अपनी प्रसिद्ध कृति “शूद्र कौन थे?" में उन्होंने मनु द्वारा निर्दिष्ट वर्ण-व्यवस्था को अस्वीकार कर दिया। उन्होंने वेदों में वर्णित चतुर्वर्ण-व्यवस्था का खण्डन किया, जिससे ब्राह्मणों की तुलना पुरुष के मुख से क्षत्रियों की भुजाओं से, वैश्यों की जंघाओं से तथा शुद्रों की पगों में की गई है। यह सिद्धांत असमानता का द्योतक है।

उनके अनुसार वर्ण-व्यवस्था पर आधारित हिन्दू समाज शोषण व असमानता को बढ़ावा देता है। अस्पृश्य वर्ग वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति है । इस व्यवस्था में ब्राह्मणों को उच्च स्थान प्राप्त है तथा अस्पृश्यों को शोषण व दमन का सामना करना पड़ता है। अतः अस्पृश्यता निवारण व भारतीय समाज में सुधार का एक ही उपाय है कि वर्ण-व्यवस्था का अन्त कर दिया जाए। अम्बेडकर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि हिन्दू समाज में समानता सम्भव नहीं है। इसी कारण अन्ततः उन्होंने हिन्दू धर्म का परित्याग कर बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था।

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