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समकालीन राजनीतिक सिद्धान्त (Contemporary Political Theory)

समकालीन राजनीतिक सिद्धान्त क्या है?

(What is Contemporary Political Theory)


1970 के बाद अमरीका, यूरोप तथा अन्य देशों में राजनीतिक चिन्तकों ने नैतिक मूल्यों पर आधारित राजनीतिक सिद्धान्तों में दोबारा रुचि लेनी आरम्भ की। इस पुनर्जागरण के महत्त्वपूर्ण कारण जहाँ एक तरफ नैतिक मूल्यों में उभरता हुआ संघर्ष था, वहीं दूसरी तरफ सामाजिक विज्ञानों तथा साहित्य में परिवर्तन थे। इसके अतिरिक्त द्वितीय विश्व युद्ध के सायों की समाप्ति, यूरोप के पुनरुत्थान तथा मार्क्सवाद और समाजवाद की विचारधारा में संकट ने राजनीतिक विचारधाराओं में अनिश्चितता सी ला दी। चाहे वह उदारवाद था या प्रजातंत्र मार्क्सवाद था या समाजवाद, उभरते हुए सामाजिक आन्दोलनों ने सबको चुनौती दी वे आन्दोलन जो राजनीतिक सिद्धान्तों के विषयक्षेत्र का पुनः प्रलेखन करना चाहते थे।


व्यवहारवाद के प्रभुत्व के युग में राजनीतिक सिद्धान्तों को राजनीति विज्ञान ने अभिभूत किया हुआ था। सिद्धान्तों में ज्ञान और खोज को न्यायसंगत स्थान नहीं दिया गया। हालांकि व्यवहारवाद की धारणा राजनीतिक सिद्धान्तों पर अधिक देर तक हावी नहीं रही. तथापि राजनीतिक और सामाजिक विज्ञानों के विकास में यह विज्ञानवाद' (scienticism) के रूप में अपनी अमिट छाप छोड़ गई। राजनीतिक सिद्धान्तों के पुनर्जागरण की प्रक्रिया के कई स्रोत हैं। जहाँ एक तरफ कई चिन्तकों (जैसे टॉमस कून) ने 'विज्ञान' के सम्पूर्ण मॉडल को ही चुनौती दे दी, वहाँ कुछ अन्य लेखकों का विचार था कि सामाजिक मुद्दों को समझने की कुछ विशिष्ट समस्याएँ होती हैं जो एकीकृत विज्ञान (unified science) के मॉडल द्वारा नहीं समझी जा सकती।
इसके दो कारण हैं- पहला, सामाजिक विज्ञानों का उद्देश्य सामाजिक व्यक्ति और सामाजिक समस्याओं का अध्ययन है और विभिन्न चिन्तक इनकी व्याख्या विभिन्न तरीकों से करते हैं तथा दूसरा राजनीतिक सिद्धांतों को राजनीति के क्रमबद्ध विवरण तक सीमित नहीं किया जा सकता; सिद्धान्तों को अपनी आलोचनात्मक भूमिका अवश्य निभानी चाहिए, अर्थात इन्हें राजनीति के वे स्पष्टीकरण भी देने चाहिए जो आम व्यक्ति की समझ से बाहर होते हैं। विभिन्न चर्चाओं के परिणामस्वरूप, राजनीतिक सिद्धान्तों में कई परिवर्तन हुए। यद्यपि इन सभी परिवर्तनों की विस्तृत व्याख्या सम्भव नहीं है, फिर भी

 इनकी मुख्य विशेषताएँ ध्यान देने योग्य हैं

  • पहली, आनुभविक सिद्धान्तों की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता उनकी इतिहास से विमुखता थी। समकालीन राजनीतिक चिन्तकों का मानना है कि सिद्धान्तों को इतिहास से अलग नहीं किया जाना चाहिए। इन सिद्धांतों ने राजनीतिक चिन्तन के इतिहास के अध्ययन को पुनर्जीवित किया है।
  • दूसरी मानव क्रियाओं से सम्बन्धित सम्पूर्ण ज्ञान की कई तरह की व्याख्याएँ हो सकती हैं। अतः मूल्यविहीन और तटस्थ राजनीतिक सिद्धांतों की धारणा मूलत: गलत है
  • तीसरी, राजनीतिक सिद्धान्तों का सम्बन्ध अवधारणाओं के विश्लेषण से भी है। इस सन्दर्भ में राजनीतिक सिद्धान्तों का कार्यक्षेत्र कुछ मुख्य अवधारणाओं जैसे प्रभुसत्ता, अधिकार, स्वतंत्रता, न्याय आदि का क्रमबद्ध अध्ययन करना है।
  • चौथी, राजनीतिक सिद्धान्तों में आदर्शक तत्त्व (normative element) भी महत्त्वपूर्ण है। समकालीन राजनीतिक सिद्धान्तों का सम्बन्ध एक तरफ हमारी राजनीतिक और नैतिक गतिविधियों के मूल ढाँचों का क्रमबद्ध विस्तार करना है, वहाँ दूसरी तरफ न्याय, स्वतंत्रता, सार्वजनिक भलाई, सामुदायिक जीवन जैसे प्रमुख राजनीतिक मूल्यों का परीक्षण और उनकी पुनर्व्याख्या करना भी है।
  • पांचवीं, राजनीतिक सिद्धांतों का सम्बन्ध अमूर्त सैद्धान्तिक प्रश्नों और विशिष्ट राजनीतिक मुद्दों दोनों से होता है यह इस मान्यता पर आधारित है कि उन परिस्थितियों का व्यापक परीक्षण किये बिना, जो इनकी उपलब्धि के लिये आवश्यक हैं, राजनीतिक धाराणाओं को उनके सही अर्थों में नहीं समझा जा सकता। राजनीतिक सिद्धान्तों को समस्याओं के समाधान के प्रति जागरूक होना चाहिए और इन्हें प्रजातंत्र, बाजार अर्थव्यवस्था, समान अवसर जैसी समस्याओं के संदर्भ में जाँच करनी चाहिए। राजनीतिक सिद्धान्त राजनीतिक विज्ञान का सैद्धान्तिक पक्ष है, जो प्रेक्षण के आधार पर सिद्धान्त निर्माण करने का प्रयत्न करते हैं और अन्त में,


डेविड हैल्ड के अनुसार, समकालीन राजनीतिक सिद्धान्तों की चार विशिष्ट विशेषताएँ हैं:

(i) ये दार्शनिक है अर्थात् ये नैतिक और वैचारिक ढाँचों से सम्बन्धित हैं,
(ii) ये आनुभविक है, अर्थात् इसका सम्बन्ध विभिन्न अवधारणाओं की व्याख्या करना है,
(iii) ये ऐतिहासिक है अर्थात् राजनीतिक सिद्धान्त विभिन्न राजनीतिक धाराओं को ऐतिहासिक सन्दर्भ में समझना चाहते हैं;
(iv) इनका सामरिक महत्त्व भी है अर्थात् ये इस सम्भावना का भी मूल्यांकन करते हैं कि हम इतिहास के किस मोड़ पर खड़े हैं और कहाँ पहुँच सकते हैं इन चारों तत्त्वों के योग से ही राजनीतिक सिद्धान्त की मूलभूत समस्याएँ सुलझाई जा सकती हैं।

राजनीतिक सिद्धान्तों के पुनर्जागरण के बाद वे विषय जो अधिक उजागर हुये हैं, वे हैं:नीतिशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य के अन्तर्गत सामाजिक न्याय तथा कल्याणकारी अधिकार सिद्धान्त, प्रजातान्त्रिक सिद्धान्त तथा बहुलवाद, नारीवाद, उत्तर- आधुनिकवाद, नये सामाजिक आन्दोलन, नागरिक समाज तथा उदारवाद समुदायवाद विवाद । वास्तव में समुदायवाद ने मार्क्सवाद की घटती लोकप्रियता से रिक्त होने वाले स्थान को भरने का प्रयास किया है यह पुनर्जागरण यह दर्शाता है कि राजनीतिक सिद्धान्तों के पतन (decline of political theory) के बारे में की गई सभी घोषणाएँ गलत थीं। परन्तु ध्यान देने योग्य बात यह है कि राजनीतिक सिद्धान्त का पुनर्जागरण सम्बन्धी यह जोश केवल उदारवादी विचारधारा तक ही सीमित है क्योंकि यह केवल उदारवाद ही है जो विचारों के मुक्त आदान-प्रदान का समर्थन करता है। यह सिद्धान्त को व्यवहार के अनुसार समन्वित करने और अपनाने को प्रयत्न करता है तथा रूढ़िवादी हुये बिना उन तत्त्वों की पहचान करने का प्रयत्न करता है जो एक न्यायपूर्ण राजनीतिक तथा सामाजिक व्यवस्था के निर्माण में सहायक हो सकते हैं। तथापि अधिकतर उदारवादी सिद्धांतों का सम्बन्ध पुरानी राजनीतिक मान्यताओं को ही और अधिक स्पष्ट एवं परिष्कृत करता रहा है। साम्यवाद के पतन के बाद, उदारवाद को आज समुदायवाद, नारीवाद तथा उत्तर-आधुनिकवाद की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। समकालीन राजनीतिक सिद्धान्त आदर्शी तथा आनुभविक राजनीति की परम्परागत विभाजन को स्वीकार नहीं करते और यह न ही किसी विशेष परम्परा के साथ स्वयं को जोड़ना चाहते हैं।

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