प्रत्येक राष्ट्र अपने राष्ट्रीय हितों की पूर्ति हेतु विदेश नीति के उद्देश्य तय करते है। भारत की विदेश नीति निर्माताओं ने भी अपने राष्ट्रीय हितों के अनुरूप विभिन्न उद्देश्य तथा अंतर्राष्ट्रीय हित मे समन्वय स्थापित करते हुए अपनी विदेश नीति के कुछ सिद्धांत निर्धारित किए है, इन्ही को भारत की विदेश नीति की विशेषताएं या आधार के नाम से जाना जाता है।
भारतीय विदेशी नीति की विशेषताएं
1.पंचशील - भारतीय विदेश नीति में पंचशील की नीति इसके नैतिक एवं शान्ति स्थापना के मूल्यों का द्योतक है। इसके माध्यम से भारत ने अपने पड़ोसियों से संबंधों के मापदण्डों की घोषणा की है। यह सिद्धान्त भारत के ही नहीं अपितु किन्हीं दो पड़ोसियों के आदर्श संबंधों के मापदण्ड भी कहे जा सकते हैं। पंचशील के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं
(i) एक-दूसरे की प्रादेशिक अखण्डता व सर्वोच्च सत्ता के लिए परस्पर सम्मान की भावना
; (ii) अनाक्रमण
(!!i) परस्पर आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना
(iv) समानता व पारस्परिक लाभ तथा
(v) शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व
2. शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व में आस्था - भारत की विदेश नीति की एक अन्य विशेषता यह है कि वह शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व में विश्वास रखती है। यद्यपि यह सिद्धान्त पंचशील का ही एक हिस्सा है, तथापि यह एक व्यापक अर्थ रखती है। व्यापक संदर्भ में यह भारत की 'जियो और जीने दो' की परम्परा का प्रतीक है। इस पंचशील से एक संदर्भ में अलग देखा जा सकता है, क्योंकि शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व द्वारा विश्व में वैचारिक या अन्य किन्हीं आधारों पर स्थापित भेदभाव की मान्यता को अस्वीकार कर सभी राष्ट्रों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों की स्थापना पर बल दिया गया है । इसके अतिरिक्त, सैन्य गठबंधनों के संबंध में भी उनके गुट में भागीदारी न करते हुए भी अन्य क्षेत्रों में संबंध विकसित करने की मनाही नहीं है। शीतयुद्ध काल में साम्यवादी एवं पूंजीवादी गुटों की सैन्य नीतियों की आलोचना करते हुए भी सीमित स्तर तक आर्थिक, सामाजिक, तकनीकी, सांस्क तिक आदि संबंधों का विकास जारी रहा। इस प्रकार विश्व शांति व विकास की सभी प्रतिक्रियाओं में सभी राष्ट्रों से मित्रतापूर्वक एवं सद्भावना आधारित संबंधों पर बल दिया। शीतयुद्धोत्तर भी विभिन्न राज्यों से परमाणु अप्रसार, भावी आर्थिक विश्व व्यवस्था, संयुक्त राष्ट्र का प्रजातान्त्रिकरण, निरस्त्रीकरण, संयुक्त राष्ट्र की भूमिका, युद्ध एवं शान्ति के मुद्दों आदि विषयों पर मतभेद होने के बावजूद भी इनसे व्यापार, पूंजीनिवेश, प्रौद्योगिकी सहयोग आदि आज भी जारी है।
3.साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद का विरोध -भारत ने उपनिवेशवाद के विरूद्ध अपना संघर्ष अति गंभीर रूप से लिया। भारत ने इसे केवल अपने देश की स्वतन्त्रता तक ही सीमित न रखकर सम्पूर्ण उपनिवेशवादी ताकतों के विरूद्ध तथा सभी अधीन देशों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण द ष्टिकोण के में लिया है। इस सन्दर्भ में सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई भारत ने इंडोनेशिया की स्वतन्त्रता के रूप में लड़ी। भारत ने संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से ही नहीं, बल्कि नई दिल्ली में 1949 में एशियाई देशों का सम्मेलन बुलाकर इंडोनेशिया की आजादी हेतु भरसक प्रयास किए। जिनके परिणामस्वरूप अन्ततः इंडोनेशिया को पूर्ण स्वतन्त्र राज्य घोषित कराने में सफल हुआ। 1950 के दशक में भारत ने कई राष्ट्रों की स्वतन्त्रता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इसमें प्रमुख रूप से इटली एवं फ्रांस के अधीन उपनिवेशों को स्वतन्त्र कराने के प्रयास शामिल हैं भारत ने इटली के पूर्व उपनिवेशों लीबिया, इरिटेरिया व इटालियन सोमालीलैंड (1949-52) तथा फ्रांस के पूर्व उपनिवेशों मोरक्को (1951-56), तुनिसिया (1952-56), अल्जीरिया (1955-56) तथा साइप्रस (1956-60) को भी मुक्त कराया। अतः 1950 व 60 के दशकों में ज्यादातर अफ्रीकी व एशियाई देशों को उपनिवेशवाद से मुक्त कराने हेतु भारत ने संयुक्त राष्ट्र के मंचों एवं इसके बाहर बहुत महत्वपूर्ण प्रयास किए।
4.रंगभेद की नीतियों का विरूद्ध - रंगभेद की नीतियों के विरूद्ध भी भारत ने भरसक प्रयत्न किए। दक्षिणी अफ्रीका में रंगभेद की नीतियों का विरोध महात्मा गांधी से लेकर स्वतन्त्र भारत में भी बहुत सशक्त रूप से हुआ भारत ने लम्बे समय तक इस देश के साथ अपने राजनयिक सम्बन्ध भी इसी नीति के विरोध स्वरूप स्थापित नहीं किए संयुक्त राष्ट्र, गुटनिरपेक्ष आन्दोलन एवं अन्य अन्तर्राष्ट्रीय मंचों के माध्यम से इस नीति को समाप्त करने की बात बहुत ही सशक्त रूप से पेश की। यद्यपि इस रंगभेद के विरूद्ध भारत की लड़ाई में अमेरिका व इंग्लैंड का पूर्ण सहयोग प्राप्त न होने के कारण कई कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। परन्तु फिर भी भारत जनमत को इसके विरूद्ध करने में सफल रहा। भारत के निरन्तर प्रयासों के कारण सुरक्षा परिषद् ने दक्षिणी अफ्रीका की सरकार के विरुद्ध प्रतिबंधों की घोषणा की। 1963 में इन प्रतिबंधों के अन्तर्गत इस देश को भेजे जाने वाले सभी सैन्य सामानों पर रोक लगा दी गयी है। 1965 में इस देश के विरूद्ध आर्थिक प्रतिबन्धों की घोषणा की गई। इस समस्या की ओर अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय का ध्यानाकर्षण हेतु 1971 को संयुक्त राष्ट्र द्वारा रंगभेद नीति पर नियन्त्रण हेतु कार्य करने का अन्तर्राष्ट्रीय वर्ष घोषित किया गया इस प्रकार भारत की सक्रिय भूमिकाओं के साथ-साथ अन्य एशियाई व अफ्रीकी देशों के समर्थन से जिम्बावे (1980), नामीबिया ( 1990) आदि की स्वतंत्रता के साथ-साथ दक्षिणी अफ्रीका में रंगभेद रहित सरकार की स्थापना हुई। अतः भारत की विदेश नीति में रंगभेद के विरूद्ध संघर्ष एक महत्वपूर्ण विषय रहा है। भारत अपने विदेश नीति के सिद्धान्तों एवं व्यवहार में हमेंशा अन्तर्राष्ट्रीय स्तरों पर रंगभेद नीति की समाप्ति हेतु प्रसासरत ही नहीं रहा, अपितु अग्रणीय राष्ट्रों में से रहा है। उसने इस मुद्दे पर पहल ही नहीं की अपितु इसे व्यवहारिक दर्जा देने हेतु अपने राष्ट्रीय हितों की परवाह न करते हुए सभी महत्वपूर्ण कदम उठाए। अन्ततः भारत के दबावो, जनमत तथा तीसरी दुनिया के देशों के सामूहिक प्रयासों से भारत को इस नीति को समाप्त करने में सफलता प्राप्त हुई।
5.निरस्त्रीकरण स्थापित करना - भारत ने सदैव विश्व में सामान्य एवं व्यापक निरस्त्रीकरण हेतु प्रयास किए है इस सन्दर्भ में संयुक्त राष्ट्र या उसके बाहर सभी मंचों पर निरस्त्रीकरण की प्रबल वकालत करने वाले राष्ट्रों में हमेशा भारत अग्रणीय स्थान रहा है। भारत ने सदैव संयुक्त राष्ट्र द्वारा पारित प्रस्तावों का समर्थन किया है या अपने ज्ञापनों एवं संशोधनों के माध्यम से इस प्रक्रिया को सुदढ़ बनाया है इस दिशा में नेहरू सबसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने परमाणु शस्त्रों से मुक्त विश्व स्थापित करने हेतु 2 अप्रैल 1954 में संयुक्त राष्ट्र में "स्टैंडर्टील रेजोल्यूशन" प्रस्तुत किया परन्तु जब 1959 तक भारत के बार - बार दोहराने के बाद भी कोई कार्यवाही नहीं हुई तब भारत की पहल पर 1961 में महासभा ने 'निरस्त्रीकरण समिति के रूप में एक स्थाई समिति की स्थापना पर सहमति व्यक्त की। इन प्रयासों के फलस्वरूप ही 1963 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा ' मास्को टेस्ट बेन ट्रीटी' आंशिक परमाणु प्रतिबन्ध सन्धि (पी०टी०बी०टी) पर सहमति हुई। इसे पांच परमाणु शक्तियों एवं भारत सहित कई राज्यों ने स्वीकृति प्रदान की।
यह सर्वविदित है कि 1963 की सन्धि आंशिक थी, क्योंकि इसके माध्यम से केवल जल, वायु तथा थल पर ही परमाणु परीक्षणों पर प्रतिबन्ध लगाया गया था, लेकिन भू-गर्भ द्वारा किए जाने वाले परीक्षणों पर कोई रोक नहीं लगाई गई थी। भारत ने गुटनिरपेक्ष देशों के माध्यम से 'निरस्त्रीकरण समिति के माध्यम से एक नई सन्धि के पारित होने पर बल दिया। इसके परिणामस्वरूप 12 जून 1968 को परमाणु अप्रसार सन्धि (एनपी0टी) पर सहमति हो गई जिसे मार्च 1970 से माना गया। परन्तु भारत ने इस सन्धि की कमियों के कारण आज तक उस पर हस्ताक्षर नहीं किए है। भारत का इस सन्दर्भ में मुख्य विरोध इस सन्धि का महासभा द्वारा पारित नवम्बर 1965 में 18 राष्ट्रों की समिति के प्रस्तावों के अनुरूप न होना है। उस प्रस्ताव में सम्मिलित चार मुख्य आधारों की पूर्ति इस सन्धि के माध्यम से नहीं होती है ये चार प्रमुख तत्व थे-
(i) इस सन्धि द्वारा परमाणु राष्ट्रों एवं गैर-परमाणु राष्ट्रों द्वारा परमाणु प्रसार पर पूर्ण नियन्त्रण होना चाहिए:
(ii) इससे परमाणु एवं गैर परमाणु राष्ट्रों के बीच परस्पर उत्तरदायित्व व कार्यों के बीच तालमेल होना चाहिए: (iii) यह सामान्य एवं व्यापक निरस्त्रीकरण, विशेषकर परमाणु निरस्त्रीकरण स्थापित करने की दिशा में कदम होना चाहिए: तथा
(iv) इसमें इस सन्धि को प्रभावी करने सम्बन्धित धाराओं का प्रावधान होना चाहिए बाद के वर्षों में भारत ने इस सन्धि के भेदभाव पूर्ण होने तथा व्यापक न होने के कारण भी हस्ताक्षर करने से मना कर दिया।
परमाणु अप्रसार सन्धि से उत्पन्न गतिरोधों के बावजूद भी भारत ने व्यापक आधार वाली सन्धि पर सहमति के प्रयास जारी रखे। परन्तु 1978 तक ज्यादातर निरस्त्रीकरण सम्बन्धित प्रयास दोनों महाशक्तियों के बीच ही सिमट कर रह गए। काफी समय बाद 1978 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने निरस्त्रीकरण पर पहला विशेष सम्मेलन बुलाया। इसी कड़ी में द्वितीय विशेष सम्मेलन, 1982 में श्रीमति इंदिरागांधी ने परमाणु शस्त्रों के प्रयोग न करने पर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाने; परमाणु हथियारों के उत्पादन या विस्फोटक सामग्री के उत्पादन पर प्रतिबन्ध लगाने, तथा सभी हथियारों से जुड़े परमाणु परीक्षणों पर तुरन्त प्रतिबन्ध लगाने के बारे में सुझाव दिए।
संयुक्त राष्ट्र का तीसरा विशेष सम्मेलन जून 1988 में बुलाया गया जिसमें भारत ने विशेष भूमिका निभाई। राजीव गांधी ने इस सन्दर्भ में सन् 2010 तक विश्व को परमाणु हथियारों से मुक्त बनाने हेतु महत्वपूर्ण रूपरेखा पेश की। यह प्रस्ताव तीन चरणों में पूरा होना था। प्रथम चरण (1988- 1994) में मुख्य रूप से आणविक हथियारों में भारी मात्रा में कटौती; परमाणु हथियारों एवं विस्फोटक सामग्री के उत्पादन पर प्रतिबन्ध; परमाणु परीक्षणों पर प्रतिबन्ध; परमाणु हथियारों के प्रयोग पर प्रतिबन्ध; अन्तरिक्ष में हथियारों के परीक्षणों एवं विस्थापन पर रोक: संयुक्त राष्ट्र जाँच व्यवस्था आदि को सम्मिलित किया गया। इसके अतिरिक्त, नाटो एवं वारस सन्धि देशों के पारम्परिक हथियारों में कटौती की बात भी की गई। द्वितीय चरण (1995-2000) में, प्रथम चरण की गतिविधियों को आगे बढ़ाने के कार्यक्रम निर्धारित किए गए। इसमें मुख्य रूप से पारम्परिक हथियारों के सैन्य सम्बन्धित अड्डों की समाप्ति करने; एक व्यापक विश्व सुरक्षा व्यवस्था बनाने; संयुक्त राष्ट्र को मजबूत बनाने आदि के कार्यक्रमों को सम्मिलित किया गया। त तीय चरण (2001-2010) में मुख्य रूप से सभी राज्यों के लिए कम से कम आवश्यक सुरक्षा सम्बन्धित निरस्त्रीकरण होना चाहिए तथा अहिंसा पर आधारित अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों के नये ढाँचे का निर्माण होना चाहिए। इस कार्यक्रम के माध्यम से राजीव गाँधी का मानना था कि सभ्य समाज हेतु अहिंसा पर आधारित अन्तर्राष्ट्रीय संबंध ही केवल एकमात्र विकल्प है।
इसके अतिरिक्त, भारत ने हमेंशा भेदभावपूर्ण एवं आंशिक निरस्त्रीकरण सम्बन्धी सन्धियों का विरोध किया है इस दिशा में 1970 की 'परमाणु अप्रसार सन्धि' (एन.पी.टी.) पर भारत का विरोध सर्वविदित है । इस कमी को पूरा करने हेतु शीतयुद्धोत्तर युग में दिसम्बर 1993 में भारत ने अमेरिका के साथ संयुक्त रूप से 'व्यापक परमाणु निषेध संधि' (सी. टी. बी. टी) का प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र में प्रस्तुत किया परन्तु इस बीच ही परमाणु शस्त्रों से सम्पन्न राष्ट्रों ने 'परमाणु अप्रसार सन्धि' को भी 1995 में "असीमित समय के लिए स्वीकृत करा लिया। जिसे बाद में विश्व के लगभग 180 राष्ट्रों की स्वीकृति मिल गई। इस घटना क्रम तथा सी.टी.बी.टी. के प्रारूप पर हुई बहस ने यह सिद्ध कर दिया कि यह नई सन्ि I (सी.टी.बी.टी.) भी एक व्यापक व सार्वभौमिक सन्धि होने के बजाय भारत के परमाणु कार्यक्रमों पर रोक लगाने तथा अन्ततः समाप्त करने हेतु बनाई जा रही है। सन्धि पर वार्ताओं के दौर में भारत की बातों को नकारते हुए इस सन्धि के प्रभावी होने के अनुच्छेद से भारत को स्पष्ट हो गया कि यह उसके विरूद्ध षड़यंत्र का स्वरूप है। अतः उसने इसे मानने से इन्कार करते हुए इससे अपने को अलग कर लिया। अन्ततः परमाणु शक्ति राष्ट्रों के बढ़ते दबाओं के कारण ।व 13 मई 1998 को अपने परमाणु विकल्प का प्रयोग कर अपने को परमाणु शक्ति सम्पन्न घोषित कर दिया।
भारत की नीति में उपरोक्त परिवर्तन सतही तौर पर निरस्त्रीकरण के प्रति विरोधाभास प्रतीत होता है। लेकिन यदि गहन अध्ययन करें तो पता चलता है कि अन्तर्राष्ट्रीय परिवेश की बाध्यताओं के अनुरूप भारत को अपने 24 वर्षों का संयम (1974 से 1998) तोड़ना पड़ा। अभी भी परमाणु विस्फोटों के बाद भारत ने स्वयं पर अंकुश लगाने की बात की तथा यह एकतरफा कार्यवाई बिना किसी दबाव के होगी भारत ने 'प्रथम प्रयोग न करने के सिद्धान्त तथा गैर-परमाणु राष्ट्रों के विरूद्ध भी परमाणु हथियारों के प्रयोग की मनाही की है। भारत ने सिर्फ अपनी सुरक्षा हेतु इसे 'न्यूनतम निरोधक क्षमता तक ही विकसित करने की बात की है। अतः भारत आज भी किसी भी व्यापक स्वरूप वाली समता पर आधारित सार्वभौमिक सन्धि पर हस्ताक्षर करने का पक्षधर है। इसलिए निरस्त्रीकरण के प्रति वचनबद्धता आज भी भारतीय विदेश नीति की महत्त्वपूर्ण विशेषता है।
6.नई अन्तर्राष्टीय आर्थिक व्यवस्था की स्थापना की पक्षधर -भारत की विदेश नीति में राजनैतिक व सामरिक मुद्दों के साथ-साथ आर्थिक मुद्दों पर भी महत्त्वपूर्ण बल दिया। विश्व व्यवस्था के सन्दर्भ में 950 व 1960 के दशकों में राजनैतिक मुद्दों को भारत ने गुटनिरपेक्ष आन्दोलन एवं संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से उठाया परन्तु 1970 के दशक में ज्यादातर तीसरी दुनिया के देशों की आर्थिक स्थिति में सुधार एवं विकास हेतु 'नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था (एन.आई.ई.ओ) की स्थापना पर बल दिया। भारत का इसके पीछे तर्क था कि जब तक इन विकासशील देशों की आर्थिक समस्याओं, जैसे- गरीबी, भूख, बीमारी, बेरोजगारी आदि, का निदान नहीं होता तब तक वहां आर्थिक सम द्वि नहीं आ सकती। इस आर्थिक क्षमता के विकास के बिना इन राष्ट्रों को विश्व में समानता स्वतन्त्रता एवं सम्मान भी प्राप्त नहीं हो सकता। अतः भारत ने गुटनिरप्रेक्ष आन्दोलन के मंचों के माध्यम से 1970 के दशक में इसे इस आन्दोलन की विषय सूची का भाग बनाया। 1973 के अल्जीरिया सम्मेलन में विश्व शान्ति की समस्या को आर्थिक विकास व स्वतन्त्रता से जोड़ा गया। अन्ततः भारत व अन्य विकासशील देशों के प्रयास के बाद संयुक्त राष्ट्र ने । मई, 1974 को 'नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था' की घोषणा की बाद में 1983 की 'नई दिल्ली घोषणा' में भी इसे अत्याधिक महत्त्व प्रदान किया गया।
शीतयुद्धोत्तर युग में यद्यपि भारत अब भूमंडलीकरण, उदारीकरण व मुक्त बाजार व्यवस्था अपना रहा है परन्तु वह आज भी इन देशों के हितों की रक्षा करके इस बदलाव के दौर में इन राष्ट्रों में स्थाईत्व का पक्षधर बना हुआ है। सर्वप्रथम, गैर वार्ताओं के माध्यम से 'विश्व व्यापार संगठन के अन्तर्गत बहुपक्षीय आधार पर व्यापारिक शर्तों को विकासशील देशों हेतु न्यायोचित बनाने में प्रयासरत रहा है। द्वितीय, जी 77 व जी- 15 देशों के समूह के माध्यम से संयुक्त राष्ट्र में तथा दक्षिण-दक्षिण सहयोग को बढ़ाकर भारत इनके आर्थिक विकास हेतु सचेत है। त तीय, बदलते हुए परिवेश में विकसित देशों के आर्थिक गुटों में बटने के कारण (यूरोपीय संघ, नाफता, एशिया- प्रशान्त सहयोग आदि) भारत तीसरी दुनिया या गुटनिरपेक्ष देशों को भी विभिन्न क्षेत्रीय आर्थिक संगठनों (हिन्दमहासागर टिम, साफ्ता आदि) के माध्यम से विकास करने का पक्षधर है। अतः इन प्रयासों के माध्यम तथा अपनी विदेश आर्थिक नीति के माध्यम से भारत आज भी विकासशील देशों तक बदलती हुई विश्व व्यवस्था के आर्थिक लाभों को पहुँचाना चाहता है। इसके अतिरिक्त, भारत इस नई स्थिति में इन देशों के विरूद्ध बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा या विश्व व्यापार संगठन के माध्यम से सामाजिक धारा,बाल श्रम, मानवाधिकार आदि के नाम पर होने वाले किसी भी प्रकार के शोषण से रक्षा हेतु भी भरसक प्रयत्न कर रहा है।
7. संयुक्त राष्ट्र में निष्ठा - भारत ने अपनी नीति द्वारा हमेंशा न केवल संयुक्त राष्ट्र की स्थापना प्रक्रिया का समर्थन किया है बल्कि इसके द्वारा स्थापित मूल सिद्धान्तों व उद्देश्यों की पूर्ति हेतु अपनी वचनबद्धता दोहराई है। नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में बोलते हुए 3 नवम्बर 1948 को कहा था कि भारत न केवल पूर्ण रूप से चार्टर के सिद्धांतों एवं उद्देश्यों हेतु वचनबद्ध है अपितु अपनी पूर्ण क्षमता के साथ उनको लागू करने की कोशिश भी करेगा क्योंकि नेहरू का मानना था कि कुछ कमियों के बावजूद भी यह मूल कार्य को करने में सक्षम है और इसे यदि हमने आज स्थापित व मजबूत नहीं किया होता तब भी राष्ट्र इस प्रकार के संगठन की स्थापना हेतु अवश्य एकजुट हो जाते लगभग इसी प्रकार के उदगार नेहरू ने 5 मई 1950 को संयुक्त राष्ट्र नेटवर्क से न्यूयार्क में बोलते हुए प्रकट किए जब उन्होंने कहा कि संयुक्त राष्ट्र के मात्र अस्तित्व से ही हमने अपने आपको कई प्रकार के खतरों एवं संकटों से बचा लिया है। इसके साथ-साथ, आज के विश्व में राष्ट्रों के मध्य शान्तिपूर्ण सहयोग की यह एक मात्र किरण है सामान्य समय में ही नहीं बल्कि निराशा के दौर में भी भारत ने संयुक्त राष्ट्र से कभी भी अपना समर्थन वापिस नहीं लिया। कश्मीर जैसे मुद्दे का हल न होने पर भी भारत की संयुक्त राष्ट्र से आस्था में कभी कमी नहीं आई।
भारत द्वारा संयुक्त राष्ट्र के सिद्धान्तों में आस्था का प्रमुख कारण भारत का स्वतन्त्रता आन्दोलन एवं संयुक्त राष्ट्र के सिद्धान्तों व उद्देश्यों में काफी समानताएँ विद्यमान होना है भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के प्रमुख सिद्धान्त, जैसे विश्व शान्ति, समस्याओं का शान्तिपूर्ण हल, रंगभेद की समाप्ति, सहनशीलता, अन्तर्राष्ट्रीय सामाजिक व आर्थिक सहयोग, शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व आदि मूल रूप में संयुक्त राष्ट्र कार्यसूची का भी भाग है भारतीय गुटनिरपेक्षता की नीति के प्रमख मूल्य एवं आदर्श भी संयुक्त राष्ट्र के मूल्यों एवं आदर्शों से काफी हद तक मेंल खाते हैं।
इसीलिए शीतयुद्ध युगीन विश्व व्यवस्था के दौरान भारत ने संयुक्त राष्ट्र के सहयोग से उपनिवेशवाद साम्राज्यवाद, रंगभेद आदि की समस्याओं के निवारण के साथ-साथ विश्व शान्ति की स्थापना हेतु पारम्परिक एवं परमाणु निरस्त्रीकरण की समस्या को हल करवाने के काफी प्रयास किए। यद्यपि कुछ मुद्दों पर सफलता भी मिली, परन्तु सभी समस्याओं का समाधान नहीं हो सका। परन्तु भारत इस संगठन के माध्यम से उन्हें भी विश्व जनमत के सम्मुख प्रस्तुत कर सका । उत्तर-शीतयुद्ध काल में भी नई आर्थिक व्यवस्था के गठन, उत्तर-दक्षिण संवाद, आदि के आर्थिक मुद्दों पर भी भारत की प्रतिक्रियाएँ महत्त्वपूर्ण रही है। संयुक्त राष्ट्र में आजकल चर्चित बहुत सी महत्त्वपूर्ण रही है। संयुक्त राष्ट्र में आजकल चर्चित बहुत सी महत्त्वपूर्ण चर्चाओं जैसे पर्यावरण सुधार, आतंकवाद पर प्रतिबन्ध, धरती को बचाने के कार्यक्रमों, ओजोन परत को क्षीण होने से रोकना, प्रदूषण को कम करना आदि के संदर्भों में भी भारत महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। परन्तु संयुक्त राष्ट्र में पाँच महाशक्तियों द्वारा प्रयोग में की गई वीटो शक्ति के कारण भारत की भूमिका उतनी सशक्त नहीं हो पा रही है। दूसरे विश्व में आये आमूलचूक परिवर्तनों के मध्य नजर भी संयुक्त राष्ट्र का शक्ति विभाजन संतुलित प्रतीत नहीं होता। इसीलिए इस संस्था को और अधिक कारगर एवं उपयोगी बनाने हेतु भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के प्रजातान्त्रिकरण हेतु भी काफी प्रयास कर रहा है। अतः विभिन्न बदलावों के बावजूद भारत की विदेश नीति में संयुक्त राष्ट्र में आस्था, इसमें सक्रिय योगदान व रूचि तथा इसके उत्तरदायित्वों को वहन करने की नीति निरन्तर रूप से जारी है।
8.विवादों को शान्तिपूर्वक हल करने का पक्षधर- भारत की विदेश नीति हमेंशा विश्व में घटित विवादों को शान्तिपूर्ण हलकरने की पक्षधर रही है संयुक्त राष्ट्र द्वारा शान्ति स्थापित करने की कार्यवाही के सन्दर्भ में भारत हमेशा अध्याय VII(दंडात्मक कार्यवाही/सामूहिक सुरक्षा के माध्यम से) के स्थान पर अध्याय VI ( शान्तिपूर्ण तरीको से विवादों को सुलझाना)के अन्तर्गत कार्यवाही का पक्षधर रहा है।
भारत का मानना रहा है कि दण्डात्मक कार्यवाही से राज्यों के बीच मतभेद या मनमुटाव और बढ़ जाता है, जबकि शान्तिपूर्ण तरीकों के माध्यम से किया गया समाधान ज्यादा स्थाई सिद्ध होता है इस सन्दर्भ में भारत सुरक्षा परिषद सुरक्षा एवं महासभा की शक्तियों में परिवर्तन का पक्षधर नहीं है अपितु इसका मानना है कि किसी भी प्रकार से परिषद् की शक्तियों को घटाकर महासभा की शक्तियों में व द्धि नहीं की जानी चाहिए । ऐसा करना अन्यायपूर्ण ही नहीं, अपितु राजनैतिक तौर पर भी गलत होगा। शायद इसी कारण से जब नवम्बर 1949 को ' शान्ति के लिए एकता प्रस्ताव के माध्यम से महासभा की शक्तियों में व द्धि करने की बात हुई तब भारत वोट डालने के समय अनुपस्थित रहा। बल्कि भारत का मानना है कि संयुक्त राष्ट्र की किसी भी कार्यवाही को प्रभावी रूप से करने हेतु पाँचों वीटो शक्तियों की सहमति आवश्यक है, उसी प्रकार संयुक्त राष्ट्र की सैन्य कार्यवाही हेतु भी पाँचों वीटो शक्तियों की स्वीकृति का प्रावधान है।
शीतयुद्धोत्तर युग में भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के प्रजातान्त्रिकरण हेतु भी शक्ति नहीं बल्कि आपसी सहमति को आधार बनाने का पक्षधर है। भारत की मांग बदले हुए विश्व के क्षितिज तथा समानांतर स्थिति के साथ-साथ नैतिकता एवं सर्वसम्मति पर आधारित है। भारत की यह मांग मूलतः नैतिकता, राजनैतिक, सुचारू विश्व व्यवस्था तथा प्रभाविकता पर आधारित है। अतः प्रारम्भिक वर्षों से लेकर शीतयुद्धोत्तर युग तक भारत का अटूट विश्वास रहा है कि विवादों को शान्तिपूर्ण ढंग से हल करना ही स्थाई एवं कारगर तरीका है। इसी माध्यम से विश्व में दूरगामी शांति एवं स्थिरता बनी रह सकती है।
निष्कर्ष
अतः निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि भारत की विदेश नीति की उपरोक्त विशेषताओं के आधार पर ही भारत न केवल अपने राष्ट्रीय हितों की पूर्ति मात्र में व्यस्त है, अपितु वह विश्व शान्ति के प्रयासों को बढ़ाने में भी महत्वपूर्ण योगदान कर रहा है। इन्ही विशेषताओं के द्वारा वह अपने द्विपक्षीय मतभेदों को हल करके परस्पर राष्ट्रों से अच्छे संबंधों के साथ-साथ क्षेत्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग विकसित करने में प्रयासरत है। भारत की विदेश नीति के अन्तर्गत इन उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु हिंसा का कोई स्थान नहीं है, बल्कि वह चाहता है कि मतभेदों को भी शान्तिपूर्ण ढ़ग से हल करना ज्यादा श्रेयकर रहेगा। इसके साथ-साथ इसका है कि इस सन्दर्भ में राज्यों को हथियारों की होड़ को समाप्त करके निरस्त्रीकरण पर बल देना होगा इस सम्पूर्ण विश्व व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने हेतु वह समानता व न्याय पर आधारित नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक विश्व व्यवस्था का पक्षधर है। परन्तु यह तभी सम्भव हो सकता है जब इस बदले हुए विश्व में संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था कार्य करे । शायद इसीलिए वर्तमान सन्दर्भ में ईराक के किरूद्ध कार्यवाही में भारत संयुक्त राष्ट्र की महत्त्वपूर्ण भूमिका का का पक्षधर है इसके साथ-साथ भारत संयुक्त राष्ट्र के प्रजातान्त्रिकरण की मांग भी करता रहा है। अतः भारत की विदेश नीति गुटनिरपेक्षता, पंचशील, शान्तिपूण। सह-अस्तित्व के साथ-साथ विश्व शान्ति, सहयोग, निरस्त्रीकरण आदि को बढ़ावा देने की नीति है।
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