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भारतीय सविधान की विशेषताए (Features of Indian Constitution )


1.
भारतीय प्रतिनिधियों द्वारा निर्मित संविधान


-वर्तमान भारतीय संविधान इस दृष्टि से अद्वितीय है कि इसका निर्माण भारतीय जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा किया गया है। यह ठीक है कि प्रांतों से जो प्रतिनिधि संविधान सभा के लिए निर्वाचित हुए थे वे सीमित मताधिकार पर चुने गए थे। रियासतों के प्रतिनिधि उनके शासकों द्वारा मनोनीत थे। इस प्रकार रियासतों की जनता का संविधान सभा में प्रतिनिधित्व नहीं थां ऐसा होते हुए भी चूँकि इस विधान में सभी विचारधाराओं का जहाँ प्रतिनिधित्व था वहाँ सभी वर्गों को भी प्रतिनिधित्व मिला हुआ था। इस प्रकार संविधान सभा को भारतीय जनता की प्रतिनिधित्वमूलक सभा कहा जा सकता है। यहाँ यह बतलाना भी आवश्यक है कि इस संविधान से पूर्व जितने भी संविधान भारत में लागू
हुए थे, वे ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किए गए थे।

2. जनता की प्रभुसत्ता

-वर्तमान संविधान के अनुसार प्रभुसत्ता जनता में निहित है। स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व 1947 के भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम तक यह सत्ता ब्रिटिश संसद को प्राप्त थी भारतीय जनता की प्रभुसत्ता से अर्थ है कि भारत पूर्ण रूप से स्वतंत्र है और बाहरी शक्ति का उस पर कोई नियंत्रण नहीं है।

3.लिखित संविधान और उसकी सर्वोच्चताः

संघात्मक शासन के लिए लिखित संविधान का होना अनिवार्य है, क्योंकि संघ और इकाई राज्य दोनों अपनी सत्ता संविधान से ही प्राप्त करते हैं। संघ किन शर्तों पर बना है, केन्द्रीय सत्ता और इकाई राज्यों का सत्ता के पास कौन-कौन से अधिकार व शक्तियां होंगी, संसद की शक्तियां क्या होंगी, न्यायपालिका किन शक्तियों का प्रयोग करेगी आदि बातें संविधान में लिख दी जाती हैं । संघात्मक शासन में संविधान देश की सर्वोच्च विधि होता है, में जिसका उल्लंघन कोई नहीं कर सकता। यह शासन की सभी शक्तियों को स्रोत होता है, कोई भी विधि संविधान सम्मत न होने पर अवैध घोषित कर दी जाएगी।
भारत का संविधान भी इन उपरोक्त कसौटियों पर खरा ना है उतरता है। व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तथा भारत की आम जनता सभी अपने अधिकार तथा शक्तियां संविधान से ही प्राप्त करते हैं। संविधान देश के लोकतांत्रिक जीवन की दशा-दिशा तय करता है।

4.विश्व का सबसे बड़ा संविधान


भारत का संविधान दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है। इसी आधार पर भारत को दुनिया का सबसे बड़ा गणतंत्र कहा जाता है। भारतीय संविधान में 448 अनुच्छेद, 12 अनुसूचियां शामिल हैं। यह 2 साल 11 महीने 18 दिन में बनकर तैयार हुआ था। जनवरी 1948 में संविधान का पहला प्रारूप चर्चा के लिए प्रस्तुत किया गया। 4 नवंबर 1948 से शुरू हुई यह चर्चा तकरीबन 32 दिनों तक चली थी। इस अवधि के दौरान 7,635 संशोधन प्रस्तावित किए गए जिनमें से 2,473 पर विस्तार से चर्चा हुई थी।
संविधान में निरंतर संशोधन होते रहते हैं जिससे संविधान का आकार और भी विस्तृत होता जाता है। हमारे संविधान में यह जब से निर्मित हुआ है तब से बहुत से उपबंध इस में जोड़े गए हैं तथा कुछ कुछ निष्कासित भी किए गए हैं। 1976 में हुए दो वे संविधान संशोधन के दौरान हमारे संविधान में विशेष रूप से वृद्धि हुई है। इस संशोधन के दौरान इसमें भाग 4 ए तथा भाग 14 ए जोड़े गए हैं तथा अनेक अनुच्छेदों का विस्तार किया गया है। बाद में और भी कई सारी चीजों को संविधान में जोड़ा गया है या संशोधित किया गया है जैसे कि ग्राम पंचायत एवं नगरपालिका विषयक इत्यादि। भारतीय संविधान का विस्तृत आकार ऐसे ही नहीं है बल्कि इसका मूल संविधान में संशोधन तथा परिवर्तन करते हुए हुआ है। अब तक लगभग 107 संशोधन होना इसका प्रमाण है।
वर्तमान समय में मूल रूप से भारतीय संविधान में एक प्रस्तावना, 25 भागों में विभाजित 465 से अधिक अनुच्छेद और 12 अनुसूचियां हैं। विश्व के किसी भी संविधान में इतने अनुच्छेद तथा अनुसूचियां नहीं हैं। संशोधन द्वारा भारतीय संविधान का स्थूल रूप निरंतर बढ़ रहा है। इससे संविधान का विकास तो हुए है परन्तु श्रेष्ठ परंपराओं का मार्ग अवरूद्ध हुआ है।

5. शक्तियों का विभाजन


संघात्मक शासन में केन्द्रीय सत्ता और इकाई राज्यों की सत्ता के बीच इस बात का समझौता या सहमति होती है कि वे किन-किन अधिकारों और शक्तियों का प्रयोग करेंगे अर्थात् किन-किन विषयों पर वे कानून बनाएंगे, इसे ही शक्तियों का विभाजन कहते हैं। संविधान में ही उन विषयों का वर्णन कर दिया जाता है जिन पर केन्द्र व इकाई राज्य कानून बनाएंगे।
भारत के संविधान में भी इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि. संघ और राज्य किन-किन विषयों पर कानून बनाएंगे। भारतीय सविधान की 8वीं अनुसूची शक्तियों के विभाजन से ही संबंधित है। इस अनुसूची में शक्तियों का जिस प्रकार वितरण किया गया है, वह कनाडा के संविधान से मिलता-जुलता है, वस्तुत: हमारी संघात्मक व्यवस्था ब्रिटिश नॉर्थ अमेरिका ऐक्ट (कनाडा) से ही प्रेरित है। संविधान में संघ, राज्य, समवर्ती और अवशिष्ट शक्तियों के अंतर्गत संघीय व्यवस्था से सम्बद्ध सभी विषयों का वर्गीकरण किया गया है।
संघी सूची में 97 विषय हैं। ये सभी राष्ट्रीय महत्व है अर्थात् इन 97 विषयों पर कानून निर्माण केन्द्रीय सरकार द्वारा किया जाएगा और संसद कानून निर्मात्री संस्था को भूमिका निभाएगी। मुद्रा, बैंकिंग, विदेश, जहाजरानी, उड्डयन प्रतिरक्षा, रेल्वे, परमाणु कर्जा, दूरसंचार, आयकर तथा विदेशी ण आदि इस विषय के अंतर्गत आते हैं। संघ सूची के अंतर्गत से सारे विषय आते हैं जिनके लिए 'संप राजय का चारतव में अस्तित्च होता है और जो सम्प्रभुता' से प्रत्पाक्षत: संबंधित होते हैं।
निः राज्य सुची में सम्प्रति 61 विषय है इन विषयों पर कानून निर्माण को अधिकार प्रत्येक इकाई राज्य के विधानमंडल (जहां एक सदन के बाहर विधानसभा को तथा जहां दो सदन है वहां विधानसभा एवं विधानपरिषद दोनों को) को होगा। पुलिस, सिंचाई पेयजल, आदि इसमें शामिल हैं।
समवर्ती सूची में वे विषय आते हैं जिन पर केन्द्र और इकाई राज्यों दोनों को ही कानून निर्माण का अधिकार है। इन विषयों का महत्व स्थानीय और संघीय दोनों दृष्टियों से है सम्प्रति इसमें 52 विषय है। पर्यावरण, शिक्षा, वन, सामाजिक सुरक्षा, बीमा, आदि इसके अंतर्गत आते हैं। समवर्ती सूची का विचार हमने आस्ट्रेलिया के संविधान से ग्रहण किया है, वह सहयोगी संघवाद का एक प्रतिरूप है।
अवशिष्ट शक्तियों के अंतर्गत वे विषय आते हैं जिनका उपरोक्त वर्णित केन्द्र या संघ, राज्य और समवर्ती सूचियों के विषयों के अंतर्गत कोई वर्णन या उल्लेख नहीं है। अवशिष्ट शक्तियों के विषयों पर कानून निर्माण का अधिकार संघ की संसद को संविध न ने दिया है (अनु, 248) अर्थात् ऐसे विषय संघ सूची के अंतर्गत माने जाएंगे। कनाडा के अनुसरण करते हुए भारतीय संविधान निर्माताओं ने भी अवशिष्ट केन्द्र को दी है, जबकि अमेरिका में अवशिष्ट शक्तियों पर कानून निर्माण का अधिकार राज्यों को है।

6.कठोर एवं लचीलापन का संविधान में समन्वय

संविधान में संशोधन प्रणाली के आधार पर संविधान दो प्रकार का होता है कठोर या दुष परिवर्तनशील संविधान लचीला या सुपरिवर्तनशील संविधान

कठोर संविधान वह होता है जिसमें संविधान संशोधन की प्रक्रिया या प्रणाली जटिल होती है। ये वे संविधान होते हैं। जिनमें संवैधानिक व साधारण कानून में मौलिक भेद समझा जाता है तथा इनमें संवैधानिक कानूनों में संशोधन परिवर्तन के लिए साधारण कानूनों के निर्माण से भिन्न प्रक्रिया अपनाई जाती है, जो साधारण कानूनों के निर्माण की प्रणाली से कठिन होती है। उदाहरण अमेरिकी संविधान।

लचीला संविधान वह होता है जिसमें संविधान की प्रक्रिया सरल होती है। यदि संवैधानिक कानूनों और सामान्य कानूनों के बीच कोई अंतर न हो और संविधानिक कानून में सामान्य कानूनों की प्रक्रिया से ही संशोधन एवं परिवर्तन क्या का सके, तो संविधान को लचीला या सुपरिवर्तनशील कहा जाता है। उदाहरण इंग्लैंड का संविधान।

भारत का संविधान ना तो कठोर है और न ही लचीला। भारतीय संविधान में संविधान संशोधन के लिए तीन प्रक्रिया अपनाई जाती है।


(i) संसद के प्रत्येक सदन में साधारण बहुमत द्वारा साधारण विधेयक (गैर वित्तीय) को पारित करने की प्रक्रिया अर्थात दोनों सदनों द्वारा उपस्थित तथा मतदाता सदस्यों के साधारण बहुमत द्वारा पारित हो ने पश्चात् राष्ट्रपति की अनुमति से पारित हो जाता है। इस प्रक्रिया द्वारा निम्नलिखित प्रावधानों में संशोधन किया जा सकता है।

अनुच्छेद 2, 3 तथा 4 - नए राज्यों का निर्माण, राज्यों की सीमा परिवर्तन राज्यों के नाम में परिवर्तन इत्यादि।
• अनुच्छेद 169 किसी  राज्य की व्यवस्थापिका में द्वितीय सदन विधानपरिषद की रचना तथा उसका समाप्त किया जाना।
संविधान की द्वितीय अनुसूची।
• अनुच्छेद 100 (3) - संसद मे गणपूर्ति ।
• अनुच्छेद 106 - संसद सदस्यों के वेतन भत्ते आदि।
अनुच्छेद 105 संसद सदस्यों के विशेषाधिकार तथा उन्मुक्तिया।
अनुच्छेद 118 - संसद में प्रक्रिया संबंधी नियम।
अनुच्छेद 120 (2) - अंग्रेजी को संसद के कार्यों की भाषा संबंधी नियम।
अनुच्छेद 124 (1) - सर्वोच्च न्यायालय का संगठन तथा न्यायाधीशों की संख्या से संबंधित।
अनुच्छेद 135 - सर्वोच्च न्यायालय के कार्य क्षेत्र विस्तार से संबंधित।
अनुच्छेद 348 - भारत में आधिकारिक भाषा के प्रयोग से संबधित।
अनुच्छेद 5 से 11 - भारत की नागरिकता संबंधी। अनुच्छेद 327 - देश में चुनावों से संबंधित मामले।

(ii) ससद के दोनों सदनों के विशेष बहुमत द्वारा


संशोधन विधेयक संसद के किसी भी सदन प्रस्तुत किया जा सकता है। प्रत्येक सदन में यह सदन कोई कुल संख्या के बहुमत तथा उपस्थित एवं मतदान देने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत द्वारा पारित होना चाहिए तथा इसके पश्चात् राष्ट्रपति का अनुमोदन मिलने के बाद यह संशोधन हो जाता है। इस प्रक्रिया द्वारा मुख्य रूप से निम्नलिखित प्रावधानों का संशोधन किया जाता है।

• संविधान का भाग 3 संबंधित मामले।
• संविधान का भाग 4 मौलिक अधिकारों से राज्यों के नीति निर्देशक तत्व।


(iii) सघ तथा राज्यों की सहमति से - इस प्रक्रिया के अंतर्गत संविधान संशोधन विधेयक संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है। प्रत्येक सदन द्वारा कुल संख्या के बहुमत तथा उपस्थित एवं मतदान देने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से पारित होना चाहिए। इसके पश्चात् यह पारित संविधान संशोधन विधेयक राज्यों के विधानमंडलों के पास भेजा जाता है। भारत के काम से कम आधे राज्यों के विधानमंडलों द्वारा साधारण बहुमत से पारित किया गया विधेयक पारित माना जाता है। राज्यों से अनुमोदित विधेयक राष्ट्रपति कोई सहमति के लिए भेजा जाता है। राष्ट्रपति की अनुमति मिल जाने के पश्चात यह संशोधन मान्य होता है। इस प्रक्रिया के द्वारा निम्नलिखित प्रावधानों में संशोधन किया जा सकता है।


• अनुच्छेद 54 तथा 55 - राष्ट्रपति का निर्वाचन तथा निर्वाचन प्रक्रिया से संबंधित।
• अनुच्छेद 75 तथा 162 - क्रमशः संघ तथा राज्य की कार्यपालिका शक्ति से संबंधित ।
• भाग 5 का अध्याय 4 सर्वोच्च न्यायालय से संबंधित।
• भाग 5 का अध्याय 5 - राज्यों के उच्च न्यायालय से संबंधित।
• संविधान की सातवीं अनुसूची राज्य तथा संघ मे व्यवस्थापिका शक्ति का वितरण।
• चौथी अनुसूची - संसद में राज्यों के प्रतिनिधित्व से संबंधित।
• अनुच्छेद 368 - संविधान में संशोधन की प्रक्रिया से संबंधित।

7.मौलिक अधिकार

संविधान के तीसरे भाग में छह मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है। यह अधिकार निम्नलिखित हैं
• समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18)
• स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22)
• शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)
• धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)
• संस्कृति व शिक्षा का अधिकार (अनुच्छेद 29-30)
• संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)


मौलिक अधिकार का उद्देश्य वस्तुतः राजनीतिक लोकतंत्र की भावना को प्रोत्साहन देना है। यह कार्यपालिका और विधायिका के मनमाने कानूनों पर निरोधक की तरह काम करते हैं। उल्लंघन की स्थिति में इन्हें न्यायालय के माध्यम से लागू किया जा सकता है। जिस व्यक्ति के मौलिक अधिकार का हनन हुआ है, वह सीधे सर्वोच्च न्यायालय की शरण में जा सकता है, जो अधिकारों की रक्षा के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा व उत्प्रेषण जैसे अभिलेख या रिट जारी कर सकता है।

मौलिक अधिकार कुछ सीमाओं के दायरे में आते हैं तथा यह परिवर्तनीय भी हैं। अनुच्छेद 20-21 द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छोड़कर राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान इन्हें स्थगित किया जा सकता है।

8. मौलिक कर्तव्य


मूल संविधान में मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख नहीं किया गया है। इन्हें स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिश के आधार पर 1976 के 42 वें संविधान संशोधन के माध्यम से आंतरिक आपातकाल (1975 से 77) के दौरान शामिल किया गया था। 2002 के 86 वें संविधान संशोधन ने एक और मौलिक कर्तव्य को जोड़ा। संविधान 4a भाग अनुच्छेद 51a का में मौलिक कर्तव्यों का जिक्र किया गया है इसके तहत प्रत्येक भारतीय का एक कर्तव्य होगा कि वह संविधान, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान का आदर करें, राष्ट्र की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करें, हमारी मिश्रित संस्कृति की समृद्ध धरोहर का अनुरक्षण करें, सभी लोगों में आपसी भाईचारे की भावना का विकास करें, इत्यादि।

मौलिक कर्तव्य नागरिकों को यह याद दिलाते हैं कि अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते समय उन्हें याद रखना चाहिए कि उन्हें अपने समाज, देश व अन्य नागरिकों के प्रति कुछ जिम्मेदारियों का निर्वहन भी करना है। नीति में निर्देशक तत्व की तरह कर्त्तव्यों को भी कानून रूप लागू नहीं किया जा सकता है।

9. राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत

डॉक्टर अंबेडकर के अनुसार राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत भारतीय संविधान की अनूठी विशेषता है। इसका उल्लेख संविधान के 4 भाग में किया गया है। नीति निर्देशक तत्वों का कार्य संविधान व आर्थिक लोकतंत्र को बढ़ावा देना है। मुख्य उद्देश्य एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है। नीति निर्देशक सिद्धांत यद्यपि न्यायालयों द्वारा लागू नहीं कराया जा सकता तथापि वे देश के प्रशासन का मूल आधार हैं और सरकार का यह कर्तव्य है कि वह कानून बनाते समय इन सिद्धांतों का पालन करें।

10. स्वतंत्र एवं निष्पक्ष सर्वोच्च न्यायालयः


संघात्मक शासन में सर्वोच्च न्यायालय न्यायिक सोपान में शीर्षस्थ स्तर पर होता है, जिसे स्वतंत्र एवं निष्पक्ष भूमिका निभाना होता है। संघात्मक शासन में संविधान लिखित होने के कारण सर्वोच्च न्यायालय का यह दायित्व होता है कि, वह संविधान के प्रावधानों का अर्थ अस्पष्ट होने पर उसकी व्याख्या करे और संघ, राज्य तथा जनता तीनों से संविधान के प्रावधानों का अनुपालन सुनिश्चित करे, वह किसी भी ऐसी विधि को अवैध घोषित करने का अधिकार रखता है जो संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन कर बनाए गए हों। इस प्रकार, वह संविधान के संरक्षक की भूमिका निभाता है। केन्द्र व इकाई राज्य या राज्यों के बीच अथवा इकाई राज्यों के बीच उठने वाले किसी भी विवाद का एकमात्र निर्णयकर्ता सर्वोच्च न्यायालय ही होता है, इस प्रकार वह 'संघ' का भी संरक्षक बन जाता है। सर्वोच्च न्यायालय की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को सुनिश्चित करने हेतु संविधान में अनेक प्रावधान किए जाते हैं।

उपरोक्त प्रावधानों का भारतीय संविधान अक्षरशः पालन करता है। विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया' का पालन सुनिश्चित कराना देश के सर्वोच्च न्यायालय का कार्य है। भारत में जब भी संविधान के प्रावधानों की उपेक्षा करते हुए संसद या राज्यों के विधानमंडल ने कानून का निर्माण किया है, तब सर्वोच्च न्यायालय ने उन कानूनों को असंवैधानिक ठहराकर अवैध घोषित कर दिया है । 39वें संविध न संशोधन का रद्द होना इसका प्रमाण है।

11. न्यायिक समीक्षा का अधिकार-

भारतीय संघीय संविधान द्वारा सबसे प्रथम बार उच्चतम न्यायालय को न्यायिक समीक्षा का अधिकार दिया गया है इस अधिकार के द्वारा उच्चतम न्यायालय संघीय और राज्यों की कार्यपालिकाओं के कार्यों और विधानपालिकाओं के कानूनों की समीक्षा कर सकता है। संविधान के विरुद्ध होने पर उन्हें अवैध घोषित कर सकता है। इसीलिए संघ और राज्य की कार्यपालिकाएँ और विधानपालिकाएँ संविधान के अनुसार ही कार्य करती हैं।

12. पूर्ण वयस्क मताधिकार

-वर्तमान संविधान द्वारा पूर्ण वयस्क मताधिकार की व्यवस्था पहली बार की गई है। भारतीय नागरिक जिसने 18 वर्ष की अवस्था प्राप्त कर ली है। उसे मत देने का अधिकार हैं। यह भारतीय संविधान का एक क्रांतिकारी कदम है।


13. संघात्मक व्यवस्था तथा एकात्मक
व्यवस्था का समन्वय


संविधान द्वारा संघात्मक ढांचे को स्वीकार किया गया है अर्थात केंद्र तथा राज्यों में पृथक पृथक सरकारें स्थापित की गई तथा राज्यों एवं केंद्र में शक्तियों का विभाजन किया गया, लेकिन व्यवहार में राज्यों पर केंद्र का वर्चस्व स्थापित किया गया है। कुछ महत्वपूर्ण बातें निम्नलिखित है जो एकात्मक व्यवस्था का अधिक समर्थन करते हैं

• एकहरी नागरिकता।
• शक्तियों के बंटवारे के बावजूद केंद्रीय सरकार का
• राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार।
• आपात उपबंध।
• एकीकृत न्याय व्यवस्था।
• अखिल भारतीय लोक सेवाएं।
• राज्य के राज्यपालों की केंद्र द्वारा नियुक्ति।
• निर्वाचन के लिए एक ही केंद्रीय निर्वाचन आयोग।
• राज्यों के बीच मतभेदों का केंद्र द्वारा निवारण।
• राज्यों का राज्यसभा में समान प्रतिनिधित्व।
• केंद्र सरकार द्वारा राज्य की सीमाओं का नाम में परिवर्तन।
• परिवर्तनशील संविधान।
• योजना आयोग द्वारा नियोजित विकास। राष्ट्रीय विकास परिषद का स्वरूप।
• अवशिष्ट शक्तियां केंद्र के अधिकार क्षेत्र में होना।
• राज्यों के बीच मतभेदों का केंद्र द्वारा निवारण।
• राज्यों का राज्यसभा में समान प्रतिनिधित्व।
• केंद्र सरकार द्वारा राज्य की सीमाओं का नाम में परिवर्तन।
• परिवर्तनशील संविधान।
• योजना आयोग द्वारा नियोजित विकास। राष्ट्रीय विकास परिषद का स्वरूप।
• अवशिष्ट शक्तियां केंद्र के अधिकार क्षेत्र में होना।


संघात्मक व्यवस्था के लक्षण निम्नलिखित हैं -

• संविधान की सर्वोच्चता
• शक्तियों का विभाजन स्वतंत्र सर्वोच्च न्यायालय
• उच्च सदन का राज्य साधन होना।
• भारतीय व्यवस्था व्यवहार में एकात्मक संघवाद की व्यवस्था है अर्थात इसका ढाचा संघात्मक है तथा इसकी आत्मा एकात्मक है।


14. आपातकालीन प्रावधान

आपातकालीन स्थिति में प्रभावशाली ढंग से निपटने के लिए भारतीय संविधान में राष्ट्रपति के लिए वृहद आपातकालीन प्रावधानों की व्यवस्था है। इन प्रावधानों को संविधान में शामिल करने का उद्देश्य है देश की संप्रभुता, एकता, अखंडता और सुरक्षा, संविधान एवं देश के लोकतांत्रिक ढांचे को सुरक्षा प्रदान करना।

संविधान में तीन प्रकार के आपातकाल की विवेचना की गई है -

1. राष्ट्रीय आपातकाल युद्ध, आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह से पैदा हुए राष्ट्रीय आपातकाल की व्यवस्था (अनुच्छेद 352)।
2. राज्यों में आपातकाल(राष्ट्रपति शासन )- राज्यों में संवैधानिक तंत्र की असफलता (अनुच्छेद 356) या केंद्र के निर्देशोंका अनुपालन करने में असफलता (अनुच्छेद 365)।
3. वित्तीय आपातकाल - भारत की वित्तीय स्थिरता गया प्रत्यक्ष संकट में हो (अनुच्छेद 360)।

आपातकाल के दौरान देश की पूरी सत्ता केंद्र सरकार के हाथों में आ जाती है और राज्य केंद्र के नियंत्रण में चले जाते हैं। इससे संविधान में संशोधन किए बगैर देश का ढांचा संघीय से एकात्मक हो जाता है। भारतीय संविधान की एक अद्वितीय विशेषता है।



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