Ticker

16/recent/ticker-posts

header ad

प्रथम विश्व युद्ध -कारण तथा परिणाम। (First world war - causes and consequences)


 प्रस्तावना


प्रथम विश्व युद्ध के विषय पर जानकारी प्राप्त करते समय सर्वप्रथम यह ध्यान रखना आवश्यक है कि यह युद्ध 19वीं शताब्दी के अंतिम दो-तीन दशकों में यूरोप तथा विश्व के अन्य भागों में होने वाले घटना क्रम का परिणाम था, इन पृष्ठों पर आपके समझ यह स्पष्ट हो सकेगा कि यद्यपि यह केवल एक युद्ध था किंतु अंतर्राष्ट्रीय पैमाने पर इसका अभूतपूर्व प्रभाव पड़ा। इस युद्ध ने उस समय के अनेक सामाजिक-आर्थिक एवं राजनैतिक संरचनाओं को ध्वस्त कर दिया। यहाँ हमारा मुख्य उद्देश्य इस युद्ध के मुख्य कारणों एवं परिणामों से आपको अवगत कराना है।

प्रथम विश्व युद्ध के कारण

प्रथम विश्व युद्ध के कारण इतने पेचीदे हैं कि उनकी यथोचित व्याख्या करने का अर्थ होगा यूरोप का 1870 के बाद की राजनैतिक कूटनीति का इतिहास लिखना। दरअसल इसके कारण


1.सेन्यवाद

मैन्यीकरण दरअसल गुप्त समझौतों की प्रणाली से सीधे जुड़ा हुआ था एवं युद्ध का दूसरा महत्वपर्ण कारण था। बड़ी संख्या में सेनाएं रखना दरअसल क्रांति के दौरान फ्रांस से शुरू हुआ था और बाद के दिनों में नेपोलियन के आधीन बढ़ता गया। जर्मनी के एकीकरण के दोगन चिम्मार्क ने इस नीति का प्रभावशाली ढंग से विस्तार एवं विकास किया। 1870 के फ्रैंको-प्राशयन युद्ध के बाद सभी महाशक्तियों ने अधिक से अधिक मात्रा सैनिक एवं समुद्री हथियार बढ़ाने आरंभ कर दिए। हथियारों की यह दौड़ सुरक्षा के नाम पर तीव्र की जा रही थी। इसके कारण राष्ट्रों के बीच भय एवं शका का वातावरण बन गया। यदि किसी एक देश ने अपनी सैन्य शक्ति बढ़ायी अथवा किसी विशेष स्थान पर रेलवे लाइने बिछाने का कार्य किया तो उसके पड़ोसी देश तरंत डरकर बही कार्य स्वयं करने लगते। यह सिलसिला निरंतर चलता रहा एवं प्रतिदिन हथियारों का जमाव बढ़ता गया। यह कार्य 1912-13 के बालकान युद्धों के बाद और भी तज हो गया। ऐंग्लो-जर्मन समदरी शत्रुता भी युद्ध का एक कारण बना।

सैन्यीकरण के फलस्वरूप यल एवं समदी सेना कार्य हेतु मानवीय संसाधनों के रूप में कार्यकर्ताओं की एक बड़ी संख्या भी आवश्यक थी जो कि मनोवैज्ञानिक रूप से शीघ्र युद्ध की "अनिवार्यता" में ढाले जाते थे। इन लोगों के लिए युद्ध शीघ्र पदोन्नति एवं महत्व के दरवाजे खोलने वाला था। ऐसा नहीं है कि वे अपने नीजि स्वार्थों के लिए ही युद्ध चाहते थे, फिर भी . युद्ध की सारी तैयारी को व्यवहार में लाने के अवसर की चाह ने अपना मनोवैज्ञानिक प्रभाव अवश्य ही छोड़ा होगा।

2.राष्ट्रवाद

युद्ध का अन्य महत्वपूर्ण कारण पूरे यूरोप में चलने वाली राष्ट्रवाद की लहर थी। यह राष्ट्रवाद दरअसल फ्रांसीसी क्रांति की देन थी। इटली एवं जर्मनी ने अपने-अपने देशों में राष्ट्रवाद के अभूतपूर्व उद्भव को एक मजबूत राजनैतिक शक्ति के रूप में इस्तेमाल किया। इटली एवं जर्मनी का एकीकरण इसीलिए संभव हो सका क्योंकि कैवर (Cavour) एवं बिस्मार्क राष्ट्रवादी चेतना उभारने में सफल रहे थे। साथ ही इसी प्रक्रिया में लोगों के अंदर जातीय गर्व की भावना का भी विकास होने लगा। और वे अपने देशों को शेष देशों से ऊपर एवं बेहतर समझने लगे जिसके कारण उनका शेष देशों, विशेषकर पड़ोसी देशों में के साथ अहंकार पूर्ण व्यवहार दिखाना स्वाभाविक ही था। राष्ट्रवादी भावना की अति ने राष्ट्रों के बीच पहले से बनी हुई खाई को और गहरा कर दिया। उदाहरण के लिए जर्मनी विटेन जैसे बीच बढ़ी है राष्ट्रों के एवं काफी बड़ा हाथ के पीछे इस अति राष्ट्रवादी चेतना का वपन राष्ट्रों के बीच थल एवं जल सैन्यीकरण की होड़ और तेज रहा। इसके पनि राष्ट्रों हो गई। इसी आक्रामक राष्ट्रवादी भावना के कारण एशिया, अफ्रीका एवं बालकान मे टकरा रही थीं। अपने-अपने स्वायों को लेकर यूरोपीय शक्तियाँ आपस में एक दु अंडर अल्सस एवं फ्रांसीसी जनता की इसी आकामक राष्ट्रबादी भावना के कारण ही उनके लोरेन की क्षति को लेकर बदले की भावना बनी रही, जिसने फ्रांस को जर्मनी का सबसे बड़ा शत्रु बना दिया। 1886 के बाद फ्रांस एवं जमनी के संबंध निरंतर तनावपूर्णं बने रहे। नेपोलियन 3 के साथ वह पीड़ित राष्ट्रीय जनमत था जो प्रशिया की शक्ति के प्रति ईध्या की भावना में और भी कटता ला रहा था। अंधी राष्ट्रवादिता के उभार के परिणामस्वरूप


1870 में फ्रैंको-प्रशियन युद्ध छिड़ा एवं अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में लोकप्रिय पागलपन का एक नया दौर शुरु हुआ। इसी दौरान अधूरी इटली का भी नारा उठा जो कि आस्ट्रिया से इतालवी भाषी वेरिस्ते एवं बेतिनों जिले हड़पने की इटली राष्ट्रवादी आकाक्षा की अभिव्यक्ति थी। इसके लिए इटली ने जर्मनी से सहयोग मांगा।

जार साम्राज्य के पश्चिम में विद्रोही राष्ट्र विद्यमान थे। 1870 के बाद पोल एवं यूकरेनियाई, लिचूनियाई एवं फिन जातियाँ जार साम्राज्य से मुक्त होने के जबरदस्त प्रयास कर राही थीं। इन राष्ट्रों के प्रति रूस की नीति, विशेषकर अलेक्जेंडर III के आधीन 1881-1894 के दौरान, इनके रूसीकरण का जोरदार प्रयास रहा। जिसके नतीजे में इन राष्ट्रीय समूहों के सबसे अधिक देशभक्त तत्व रूसी सामाजिक क्रातिकारियों की ओर आकर्षित हुए जिन्होंने तुरंत ही पूरे क्षेत्र में संबंध स्थापित कर लिए इन स्थानीय आंदोलनों में कट्टरवादी भावनाएं निहित थीं जो कि इस दौरान अपने उत्थान पर थीं।

अंततोगत्वा, असंतुष्ट बालकान जनता की असंतुष्ट राष्ट्रीय आकाक्षाओं ने बालकान प्रायद्वीप को बारूद का ढेर बना दिया जिसने पूरे यूरोप को तुरंत ही अपनी आग के घेरे में ले लिया। वास्तव में युद्ध की ओर धकलने वाली तमाम घटनाओं के पीछे राष्ट्रवाद की ही प्रेरक भावना थी।

3.साम्राज्यवाद की अपनी आवश्यकताएँ

हमारे उद्देश्य के संबंध में साम्राज्यवाद का अर्थ एकक्षत्र पूजीबादी दौर में विश्वस्तर पर पूजीवादी संचय है, साम्राज्यवाद ने उत्पादन में निरंतर वृद्धि को बढ़ावा दिया जिसके कारण संबद्ध राष्ट्र नए बाजारों एवं कच्चे माल के स्रोतों की खोज में जुट गए। परिणामतः इस होड़ में लगी जनसंख्या में काफी वृद्धि हुई जिसका एक हिस्सा विश्व के उन हिस्सों में जाने के लिए तत्पर था जिन पर अभी किसी का अधिकार नहीं था। औद्योगिक कांति के कारण बचत पंजी भी वृद्धि हुई जो कि देश से बाहर निवेश की जा सकती थी। इस स्थिति ने आर्थिक शोषण में भ एवं राजनैतिक स्पर्धा को तेज कर दिया। इन तमाम घटनाओं के कारण महान शक्तियों ने चीन में स्वतंत्र प्रभाव क्षेत्र के रूप में क्षेत्र प्राप्त करने के लिए तुर्की एवं अन्य स्थानों में रेलमार्ग बनाने के लिए आपस में अफ्रीका का विभाजन आरंभ कर दिया। 19वीं शताब्दी के अंत तथा बीसवीं शताब्दी के आरंभ में बाजारों, कच्चे माल तथा उपनिवेशों के लिए संघर्ष और भी तेज हो गया क्योंकि जर्मनी और इटली भी 19वीं शताब्दी के अंतिम दो-तीन दशकों में इस होड़ में शामिल हो गए। 1914 तक यूरोप की सभी महान्शक्तियों ने अफ्रीका का कोई न कोई हिस्सा प्राप्त कर लिया था। रेलमार्ग बनाने में, जोकि आर्थिक सबसे अधिक महत्वपूर्ण पक्ष है क्योंकि इसमें आर्थिक लाभ के साथ-साथ राजनैतिक पक्ष भी साम्राज्यवाद का शामिल होता है, इंग्लैंड के रेलमार्ग केप से केरो तक फैल गए, रूस ने साइबेरिया तक तथा जर्मनी ने बगदाद रेलमार्ग तैयार कर लिए। प्रथम रेलमार्ग जर्मन, फ्रांसीसी एवं बेल्जियम हितों से टकराया, दूसरे ने रूस-जापान युद्ध में भूमिका निभाई तथा तीसरे के कारण जर्मनी तथा तीनपक्षीय मित्र संधि के बीच निरंतर संघर्ष चलता रहा।

सामान्यतः किसी देश के साम्राज्यवादी रुख अपनाने के पीछे आर्थिक हित और उसके साथ जुड़े हुए राजनैतिक उमय छिपे होते थे। उपनिवेश प्राप्त करने की देशों की नीति के पीछे कुछ प्रभावशाली, क्रियाशील राजनैतिक नेताओं का हाथ होता था जो इस दिशा में सोचते अन्यथा उपनिवेश प्राप्त करने की अनिवार्यता नहीं होती थी। ब्रिटेन ने 1860 के दशक में अथवा 1870 के दशक में और इसके बाद भी उपनिवेश प्राप्त करने की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया यद्यपि की जनसंख्या, निर्यात एवं पूंजी बचत की आर्थिक आवश्यकताएँ लंबे समय से बनी थीं। इटली एवं रूस में से किसी के पास भी नि्यात के लिए अतिरिक्त उत्पादन अथवा पंजी नहीं थीं फिर भी वे उपनिवेश प्राप्त करने की होड में लग गए। जर्मनी जो कि औद्योगिक रूप से फ्रांस से कहीं आगे था। बिस्मार्क की उपनिवेश विरोधी नीति के कारण उपनिवेश प्राप्त करने की दौड़ में धीमा रहा। बिस्मार्क जर्मनी को केवल यूरोप की ही सर्वश्रेष्ठ शक्ति के रूप में देखना चाहता था। दरअसल साम्राज्यवादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने के पीछे कुछ ही लोगों की सोच थी जिनमें विशेषकर, बुद्धिजीवी, अर्थशास्त्री, देशभक्त पत्रकार एवं राजनीतिज्ञ शामिल थे जो इस नीति का प्रचार कर रहे थे।

साम्राज्यवाद के राजनैतिक उद्देश्यों के अतिरिक्त अन्य पक्ष भी शामिल थे जो उपनिवेश प्राप्त करने के लिए निरंतर प्रेरित कर रहे थे। इनमें से एक पक्ष तो अन्वेषणकर्ताओं एवं साहसिक गतिविधियों में लगे लोगों की वैज्ञानिक खोजों में रुचि अथवा साहस एवं जोखिम भरे कार्यों के प्रति रुझान अथवा धन एवं शक्ति और प्रभाव की लालसा रखता था। उपनिवेशवाद को बढ़ावा देने में ईसाई मिशनरियों की भूमिका भी काफी महत्वपूर्ण रही। इनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध डेविड लिविंगस्टोन था जोकि लंदन मिशनरी सोसाइटी द्वारा अफ्रीका भेजा गया था। लगभग सभी यरोपीय शक्तियों ने परे अफ्रीका एवं एशिया में इन मिशनरियों की गतिविधियों में हिस्सा लिया। अन्य मुख्य ईसाई मिशनरियों जिन्होंने बड़े पैमाने पर अफ्रीका में अपनी भूमिका निभाई वे चार्ल्स गार्डन, सन जॉन कर्क एवं लार्ड लगार्ड थे।

4.समाचार पत्र, प्रेस एवं जनमत

महायुद्ध का अन्य मुख्य कारण पूरे परोप में समाचार पत्रों द्वारा जनमत को प्रदूषित करना था। समाचार पत्र अक्सर विदेशों की स्थिति को तोड़-मरोड़ कर अपने देश के अंदर राष्ट्रवादी भावनाएँ उभारते थे। कई मौकों पर जबकि कठिन अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं पर शांतिपूर्ण समाधान संभव हो सकते थे, इन समाचार पत्रों के इस प्रकार के रवैये के कारण टकराव की संभावना रखने वाले देशों के अंदर स्थिति खतरनाक बन गयी मुख्य समाचार पत्र अक्सर राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रयी राजनीति में परिणाम प्रस्तुत करने के उद्देश्य से अनावश्यक रूप से आगे बढ़ जाते थे। 1870 में बिस्मार्क के ई.एम.एस. तार को प्रकाशित करने के कारण पेरिस में अति राष्ट्रवादी जनमत को बढ़ावा मिला। और उसने फ्रैंको-प्रशियन युद्ध की संभावनाओं को प्रबल बना दिया। इससे स्पष्ट हो जाता है कि वरोपीय राजनीति में तनाव पैदा करने में प्रेस ने कितनी बड़ी भूमिका निभाई।

5.तात्कालिक कारण

आस्ट्रियन हैब्सबर्ग साम्राज्य सन् 1900 के बाद से उभरते हुए राष्ट्रवाद की चेतावनी से जुझ रहा था। बहुराष्ट्रीय साम्राज्य पर निरंतर नियंत्रण बनाए रखना दुष्कर था। ऐसी परिस्थिति में जबकि विएना में राजनैतिक एवं सैनिक नेतृत्व काउंट बर्च टोल्ड एवं कोनार्ड के हाथों में था, यह काम और भी मश्किल हो गया था। आस्ट्रिया को सबिया के संदर्भ में एक और पाइडमाट (Piedmont) अथवा एक और प्रशिया नजर आया और उन्हें जर्मनी एवं इटली के एकीकरण की प्रक्रिया में बिस्मार्क एवं कैवर के हाथों 1859 एवं 1866 में देश की अपमानजनक हार का स्मरण आया। 1914 तक सर्बिया के नेतृत्व में राष्ट्रीय एकीकरण के लिए स्लाब जनता का इसी प्रकार का आंदोलन उभरा। यद्यपि कि यह देश काफी छोटा था एवं इसकी जनसंख्या केवल पचास लाख के आसपास थी किंतु इसके जनमानस में ऐसी शक्ति एवं ऊर्जा थी जो भावी यूगोस्लाविया की नींव रख सकती थी।

सबिया केवल हैमबर्ग के लिए ही चिता का कारण नहीं था कित जर्मनी के एकीकरण में बाधा था एवं बालकानों के मध्य मित्रधि के प्रभाव का केंद्र बिद भी था। सर्विया जर्मन-आस्ट्रियाई-तुर्की संधि में धुरी का काम कर सकता था। इस प्रकार साराजीबो द्वारा उत्पन्न किया गया संकट केवल आस्ट्रिया एवं सर्बिया के बीच का अगडा न रह गया बल्कि दोनों महान संधियों की शक्ति परीक्षा का कारण बन गया। वह घटना जिसके कारण युद्ध आरंभ हुआ एक धांध व्यक्ति द्वारा जिसके संबंध सर्बियाई सरकार से स्थापित नहीं किए जा सके. हैमबर्ग के सिद्धांत के उत्तराधिकारी की हत्या थी। 28 जून 1914 के आर्कड्यूक फ्रेंज फर्डिनांड और उसकी पत्नी ने साराजीबों की राजधानी बोसनियन का दौरा किया और आस्ट्रियाई सेरो, गाविलो प्रिसिप के द्वारा उसकी हत्या कर दी गयी। विएना ने हत्या को सर्बिया द्वारा युद्ध भड़काने का प्रयास घोषित किया और ऐसी मांगे प्रस्तत की जो नकारी ही जानी थी, फलतः 28 जुलाई को विएना की ओर से युद्ध की घोषणा कर दी गयी। संधि की भावना बनी ही हुई थी और दो हथियार बंद शक्तियां अंततोगत्वा टकरा कर ही रही। ब्रिटेन के विदेश सचिव ने इस परिस्थिति पर टिप्पणी करते हुए कहा था, "पूरे यूरोप में अंधेरा छा रहा है और हम अपने जीवन में फिर रोशनी न देख सकेंगे।"


प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम

आप देखेंगे कि 1914 का युद्ध कई मामलों में मानवीय इतिहास में अनोखा रहा है। इससे पहले यूरोपीय देशों के बीच युद्ध होते रहे थे जिनमें कई देश शामिल होते थे। कित यह युद्ध अत्यधिक मंगठिन देशों के बीच का टकराव था। जिनके पास संपूर्ण आधुनिक टेकनालॉजी के मंमाधन मौजूद थे और आक्रमण एवं रक्षा के सभी दाँव पेंच उन्हें मालूम थे। यह प्रथम युद्ध था जिनके पनपने एवं सुदृढ़ होने में परे 19वीं शताब्दी का समय लगा था। युद्ध में शामिल शक्तियों ने इस यज्ञ में पूरी निष्ठा एवं उत्तेजना के साथ हिस्सा लिया क्योंकि उनका विश्वास था कि यह युद्ध ऊँचे आदर्शों एवं अस्तित्व में बने रहने के लिए लड़ा जा रहा था। यह युद्ध जल, थल एवं आकाश में सभी तरीकों से लड़ा गया था। युद्ध में नये आर्थिक संसाधन और यहाँ तक मनावैज्ञानिक युद्ध नीति का भी उपयोग किया गया क्योंकि युद्ध में शामिल देशों का विश्वाम था कि यह युद्ध जनयुद्ध था। यह युद्ध जनसमूहों के बीच का युद्ध था केवल सेनाओं और जनमेनाओं के बीच का नहीं। युद्ध तुरंत ऐसी स्थिति में पहुँच गया जहाँ सेनाओं अथवा नेताओं के लिये यह बहुत मश्किल हो गया था कि वे इसके भविष्य पर नियंत्रण रख सकें। स्वाभाविक ही था कि ऐसे युद्ध के दूरगामी परिणाम होते। यहाँ हम उनमें से कुछ परिणामों पर विचार करेंगे

1. मानव जीवन की क्षति

युद्ध के दौरान मानव जीवन और भौतिक संपदा के रूप में काफी बड़ा नुकसान हुआ। लाखों जाने गयी। मबम अधिक नकमान रम का हुआ और वहाँ मरने वालों की संख्या बीस लाख तक पहुँच गयी थी। इसी प्रकार जपनी के भी लगभग बीस लाख लोग मारे गये, फ्रांस और उसके उपनिवेशों को मिलाकर नगह नास के आमाम लोग मारे गा और ऐसी ही कुछ स्थिति आस्ट्रिया की भी रही। ब्रिटेन के भी लगभग दस लाख लोगों ने अपनी जाने गवायीं। अमरीका के लगभग एक लाख लाग इस युद्ध में मारे गये। कुल मिलाकर लगभग एक करोड़ लोगों ने अपनी जाने गंवायीं और इनमें में अधिकतर चालीम वर्ष में भी कम आय के थे। इस संख्या के दुगने लोग घायल हा और अधिकाश हमेशा के लिए अपंग हो गये। एक फ्रांसीसी अनुमान के अनुसार 1914 और 1917 के बीच हर मीनट एक फ्रामीमी अपनी जान गँवाला रहा। निश्चित रूप से मरने की ये दर किमी भी यूरोपीय युद्ध में नहीं देखी गयी थ्री। इननी बढ़ी संख्या में मानव-जीवन के नकमान ने लिंग और आय दोनों म्तगे पर जनमर्या की संरचना को बुरी तरह प्रभावित किया। महिलाओं में जान का नुकसान कम हा था। इन प्रकार जहाँ 1911 में ब्रिटेन में प्रति 1000 पुरुष पर 1067 महिलायें थी 1921 में प. अनगन प्रति 1000 पुरुष 1093 महिलायें पर हो गया। इस परिवर्तन के कारण ममाज में र्वभिन्न प्रकार की समस्याओं का उभरना स्वाभाविक ही था।




2. सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन

उन सभी देशों में जहाँ नारी उत्थान आदोलन 1914 के पहले शरू हो चका था. यह के कारण उनमें काफी तेजी आ गयी। 1918 में ब्रिटेन में तीस वर्ष से ऊपर की महिलाओं को संसदीय चुनाव में मत देने का अधिकार प्राप्त हो गया। ऐसा इसलिए क्योंकि बड के लिए संपूर्ण राष्ट्रीय प्रयास की आवश्यकता थी और आधुनिक युद्ध में अमेनिक जन ममहों में उत्साहवर्धन और औद्योगिक उत्पादन बढ़ाना उतना ही महत्वपूर्ण बन चुका था जिनना कि सैनिकों को लेकर युद्ध करना। महिलाओं ने सभी गतिविधिओं में भाग लिया। फैक्ट्रियों में काम किया दकानों, दफ्तरों एवं स्वैच्छिक सेवाओं में भाग लिया तथा अस्पतालों और फलों को चलाया। उन्होंने परुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया और उनके समक्ष बराबरी दावा पेश किया। उनके लिये अब उद्योगों और व्यापारों में काम करना आमान हो गया था क्योंकि काम के परंपरागत तरीके अब समाप्त कर दिये गये थे। युद्ध क्षेत्र में बराबर के महयोगी होने के कारण समाज के अंदर वर्ग और धन के बंधन काफी हद तक कमजोर पड़ गये थे। सामाजिक मूल्यों में भी काफी बड़ा परिवर्तन आया और युद्ध से फायदा उठाने वाले लोग समाज के अंदर विशेष रूप से नफरत की निगाह से देखे जाने लगे।

यूरोप में हुए पिछले युद्धों के मुकाबले में इस की लागत में अट्टभुत रूप से बढ़ोतरी हुई-नेपोलियन के माथ 20 वर्ष के बुद्ध में ब्रिटेन के ऋण में आठ गुना बढ़ोतरी हुई जबकि 1914 में 1918 के बीच यह ऋण बारह गना हो गया। ऐसा अनुमान है कि युद्ध में शामिल देशों का लगभग 1860 खरब (186 बिलियन) डालर का नुकसान हुआ। इतनी बड़ी धनराशि ध्वंसकारी कार्यों में लगने से निश्चित रूप से मानवीय कायाँ, चाहे बह शिक्षा हो अथवा स्वास्थ्य या कोई अन्य कार्य, का काफी बड़ा नुकसान हुआ क्योंकि यही धन इन कार्यों में भी लगाया जा सकता था। युद्ध से पूर्व विश्व व्यापार को बढ़ावा देने वाले सारे प्रयास बरी तरह प्रभावित हुए। यह आर्थिक उथल-पुथल युद्ध का सबसे अधिक चिन्ताजनक परिणाम रही। युद्ध ने यूरोप की औद्योगिक प्रभुसत्ता समाप्त कर दी और चार वर्ष के बाद जब यूरोप ने इस झटके से उभर कर फिर से इस में हाथ डाला तो बाकी देशों से स्वयं को पीछे पाया। अमरीका ने निर्यात में काफी प्रगति की और दक्षिण अमरीका भारत में एवं भारत में काफी स्थानीय उद्योग पनपे। जापान ने कपड़ा व्यापार में प्रवेश किया और चीन, भारत और दक्षिणी अमरीका बाजार माल से भर दिए। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का नक्शा एकदम बदल गया। जब यूरोपीय नेताओं ने सामान्य स्थिति बनाने आह्वान किया, जिसका अर्थ 1913 की विशेष स्थिति में जाना था, तो उनके विचार में यह नहीं आया कि आधुनिक युद्ध एक प्रकार भी की कांति है और 1913 का विश्व इतिहास का उसी प्रकार से हिस्सा बन चुका था जिस प्रकार हैमबर्ग एवं रोमानोफ साम्राज्य इतिहास का हिस्सा थे। जैसा कि कहा जा चुका है, के बाद के सभी आर्थिक नारे किसी न किसी रूप में यूरोप को विश्वयुद्ध से युद्ध व पहले के स्तर पर लाने से संबंधित जैसे, पुनर्निर्माण, क्षतिपत्ति, पूर्वत् संबंध, युद्ध ऋणों के भुगतान और सोने स्तर को पूर्ववत् बनाना आदि।

युद्ध के बाद के दौर में बालकान में राष्ट्रवाद की जड़े इतनी मजबूत हो चुकी थी कि वे एक संतुलित राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था से कम स्तर रखने वाले किसी भी समाधान के विरुद्ध हिसात्मक रुख अपना रहे थे, नए-नए औद्योगिक राष्ट्र अपनी रक्षा के लिए प्रयासरत् थे जबकि-पुराने औद्योगिक केंद्र नए विरोधियों के मुकाबले में अपनी टूटी हुई अर्थव्यवस्था की सुरक्षा चाहते ये।

फ्रांस को अल्सेस (Alsacce), एव लोरेन (Harraine) उसके साथ बने रहने तथा 15 वर्षों तक सार (Saar) कोयला खदानों को पूर्ण रूप से प्राप्त कर लेने के कारण आर्थिक पुननिर्माण में काफी सहायता मिली। किन्तु इसके अतिरिक्त कुछ ऐसी आर्थिक समस्याएँ भी थीं जो केवल जर्मनी द्वारा क्षतिपत्ति करने से नहीं सुलझ सकती थीं। उदाहरण के लिए बेल्जियम के महत्वपूर्ण रेलमार्ग 2400 मील की रेल पटरी ध्वस्त हो जाने के कारण बर्बाद हो गए थे और युद्ध के अंत तक केवल 20 लोकोमोटिव देश में बचे थे, इसकी 51 स्टील मिलों से आधी से अधिक विल्कल तबाह हो गयी और शेष बुरी तरह प्रभावित हुई; दरअसल इस प्रकार का नुकसान प्रत्येक राष्ट्र को हुआ था। पुननिर्माण के आरंभिक चरण वास्तव में काफी दुष्कर थे क्योंकि अपंग सैनिकों के लिए काम उपलब्ध कराना, बेघर हुए लोगों को घर उपलब्ध कराना, उद्योगों को सामान्य गति देना सरल कार्य न था।


3. 1919 का पेरिस सम्मेलन

1815 की विएना कांग्रेस की अपेक्षा 1919 का पेरिस सम्मेलन का स्वरूप अधिक प्रतिनिधि बोधक था। राजाओं की जगह अधिकतर देशों के प्रधान मंत्री एवं विदेश मंत्री अपने देश का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। केवल राष्ट्रपति बुडरोन विल्सन एवं किंग एलबर्ट इसके अपवाद थे। कुल बत्तीस राष्ट्रों ने इस सम्मेलन में प्रतिनिधित्व किया। सम्मेलन ने जो कुछ भी सफलता अर्जित की उसमें समय, स्थान प्रतिनिधि संघटन, संगठन एवं सम्मेलन की कार्यवाही की प्रक्रिया आदि सभी की महत्वपूर्ण भूमिका रही।

जहाँ तक समय का प्रश्न है, यह सम्मेलन जर्मनी के साथ युद्ध विराम पर समझौता करने के नौ हफ्ते बाद रखा गया। ऐसा करते हुए अमरीका एवं ब्रिटेन की आंतरिक राजनैतिक स्थिति भी ध्यान में रखी गयी थी। राष्ट्रपति विल्सन ने स्वयं सम्मेलन में हिस्सा लेने का निश्चय किया जिसके कारण दिसंबर में उनके द्वारा कांग्रेस में "संघीय राष्ट्र" संदेश पारित करने तक सम्मेलन नहीं किया जा सका। ब्रिटेन में भी लॉयड जार्ज सम्मेलन से पूर्व चुनाव करवाना चाहते थे जो कि मध्य दिसंबर में पूरै हुए। विजय के उल्लास में "कैसर (Kaiser) को फाँसी दो", "जर्मनी क्षतिपूर्ति करो" और "वीरो की मातृभूमि" जैसे नारे उठे। चुनाव परिणामों से हाउस ऑफ कॉमन्स के स्वरूप में भारी परिवर्तन आया क्योंकि "संसद में ऐसी कठोर मुद्रा वाले लोगों का प्रवेश हुआ जैसे कि उन्होंने युद्ध में महत्वपूर्ण कार्य किए हों।" चुनाव के समय को देखते हुए इसके परिणाम आश्चर्यजनक न थे।

सम्मेलन स्थल का चुनाव भी काफी सोच-विचार कर किया गया था। आरंभ में विएना में सम्मेलन करने का सुझाव आया था लेकिन राष्ट्रपति विल्सन ने पेरिस को प्राथमिकता दी जहाँ कि भारी संख्या में अमरीकी सेनाएँ तैनात थी। यह सांकेतिक भी हो सकता था क्योंकि 1871 में बर्साइल्स में हॉल ऑफ मिरर के समक्ष प्रथम जर्मन साम्राज्य की घोषणा की जा चुकी थी इसके अतिरिक्त प्रधान मंत्री जार्ज किलमेंस्यू (George Clermencoy) जोकि सम्मेलन में सबसे अनुभवी नेता थे और स्वाभाविक रूप से सम्मेलन की अध्यक्षता करने वाले थे, को सेवन (Sedan) का पूरी तरह स्मरण या जबकि फ्रैंको-प्रशियन युद्ध में फ्रांस की हार हुई थी और इसे ध्यान में रखते हुए सम्मेलन का स्थान पेरिस चनना उस हार का जवाब हो सकता था।

सम्मेलन प्रतिनिधियों का चुनाव और भी अधिक महत्वपूर्ण था। इसमें केवल महयोगी मित्र राष्ट्रों का ही प्रतिनिधित्व नहीं था बल्कि "संबद्ध शक्तियाँ" भी इसमें प्रतिनिधित्व कर रही थीं। युद्ध के अंतिम दिनों में मुख्यतः इस उद्देश्य से कई देश युद्ध में शामिल हो गए थे कि वे अंतिम समझौते में हिस्सेदारी कर सकें। जिन तीन मुख्य पक्षों को प्रतिनिधित्व नहीं मिला था वे थे गैर संबद्ध शक्तियाँ, रूसी जोकि अभी भी गृह युद्ध एवं हस्तक्षेप के युद्ध का सामना कर रहे थे और भूतपूर्व शत्र, जर्मनी, आस्ट्रिया, हंगरी, बुलगारिया और तुर्की, इन शक्तियों की अनुपस्थिति भविष्य की परिस्थितियों की दृष्टि से महत्वपूर्ण थी। विशेष रूप से जर्मनी की अनुपस्थिति से डिकटाट (Dicat) (जो कि उस पर लादी गयी व्यवस्था थी और जिसके लिए न तो जर्मनी अपने को उत्तरदापी समझता था और न ही उसके लिए जर्मनी की दृष्टि में कोई सम्मान था) के रूप में यूरोप को शांति प्राप्त हुई थी। समझौते की प्रक्रिया में यह कदम सबसे ज्यादा कमजोर पक्ष सिद्ध हुआ।


अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद, पेरिस सम्मेलन विश्व में किसी भी मौके पर हुआ सबसे बड़ा एवं महत्वपूर्ण सम्मेलन था, सम्मेलन में 32 प्रतिनिधि मण्डल शामिल थे जोकि विश्व की तीन चौथाई जनसंख्या का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। किन्तु क्योंकि स्वयं युद्ध बड़ी शक्तियों के बीच का युद्ध था इसलिए इस मौके पर भी सारा नियंत्रण दस लोगों की एक समिति के हाथ में था। इस समिति में पांच बड़े राष्ट्र: अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस, इटली एवं जापान के दो दो सदस्य शामिल थे। शीघ्र ही जापान ने कार्यवाही में रुचि लेना बंद कर दिया और अलग-थलग रहा। अप्रैल 1919 के अंत तक इटली ने भी हाथ खींच लिया और अंततः विख्यात "तीन बड़े राष्ट्र" सारी कार्यवाही चलाते रहे। जैसा कि आप जानते हैं कि इंन "तीन बड़े राष्ट्रों" का प्रतिनिधित्व अमरीकी राष्ट्रपति 'विल्सन', फ्रासीसी प्रधान मंत्री क्लीमेंस्यू एवं बिटेन के प्रधान मंत्री लॉयड जाजं कर रहे थे। जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि सम्मेलन अंततः दो विरोधी हितों वाले व्यक्तियों के बीच समझौता था। विल्सन आदर्शवादी थे और प्रजातंत्र तथा लीग ऑफ नेशन्स के प्रति कटिबद्ध थे दूसरी ओर क्लीमेंस्यू पुरानी परंपरा यथार्थवादी थे और जर्मनी, जोकि फ्रांस की सुरक्षा पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगाए हुए था, के प्रति द्वेष की भावना से ओत-प्रोत थे।



इस प्रकार सम्मेलन आदर्शवाद एवं यथार्थवाद के मूल्यों के बीच टकराव के रूप में परिवर्तित हो गया। इसके अतिरिक्त, सभी राष्ट्रों एवं अधिकतर राजनेताओं के अंतद्वंद्र की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। सम्मेलन स्वरूप वैसा ही था जैसा कि मानसिकता बन चुकी थी। सम्मेलन एक ओर आशा एवं 919 के दौर में लोगों की आदर्शों एवं जनता की स्वाभाविक प्रतिक्रिया के रूप में प्रतिशोध एवं प्रतिकार की भावना के तनाबों के बीच पूरी हुई थी। आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि ऐोसी पष्ठभमि के संदर्भ में यह दूसरी ओर उत्पीडित सम्मेलन संतोषजनक परिणाम क्यों नहीं दे सका। ऐसी परिस्थिति में जहाँ लचीलापन आवश्यक था वहाँ सम्मेलन ने कठोर रुख अपनाया और जहाँ कठोरता एवं दढ़ता की आवश्यकता थी वहाँ कमजोरी सामने आई। इतिहासकार डेविड थॉमसन (David Thamaon) के शब्दों में "इतिहास में पेरिस सम्मेलन एक स्पष्ट असफलता का प्रतीक है. लेकिन यह असफलता मानव बद्धि की असफलता और अंशतः मांगठनिक एवं कार्यावधियात्मक असफलता थी। इसका कारण अति यथार्थवाद अथवा आदर्शवाद की कमी नहीं बल्कि दोनों का गलत इस्तेमाल था।"



4.नया शक्ति संतुलन

जैसा कि आपने पहले पढ़ा है, महायुद्ध केवल यही नहीं था बल्कि जीवन के हर पहल में एक क्राति थी। मामाजिक आर्थिक एवं गजनैतिक क्षेत्र में भयानक उचल-पश्चल की भांति ही विश्व में शक्ति मतलन के अस्थायी पनबिलगण की समस्या भी थी। इस यद्ध के परिणामस्वरूप पुराने रूम, आस्ट्रिया -हंगरी, जरमनी एवं तुी माम्राज्यां का गजनींनक रव सैनिक पतन हो चका था। यद्ध से पूर्व के जर्मनी एवं आस्ट्रिया का प्रभाव एक ममय के लिए समाप्त हो गया। शांति के संस्थापका का नियादी उद्देश्य यह निश्चित करना था कि जर्मनी पर नियंत्रण रखा जा सके और सैनिक रूप में उसे कमजोर किया जा मके। ग्टरीय गठन, आर्थिक उपयुक्तता एवं सैन्य सुरक्षा से सर्बोधत उभरती हुई नयी वाम््ावकता ओ की दाष्ट से पूर्वी एवं मध्य यूरोप का नए सिरे से नक्शा तैयार करने की भी एक ममम्या थी।

जर्मनी को कमजोर बनाने के लिए कई उपाय किए गए। जर्मन मेना ओ को उनके द्वारा प्राप्त किए गए संपूर्ण भू-भागों से हट जाने का निर्देश दिया गया। अन्मंम एवं लोगन फ्राम को दोबारा प्राप्त हो गए। जर्मनी को राइन नदी (Rhine) के बा किनारे को किलाबंद करने की अनुमति नहीं थी। उसकी सेना की संख्या घटाकर 100,000 कर दी गयी और हथियारों के उत्पादन पर पाबंदी लगा दी गयी। इसी प्रकार की कार्यवादी नौमेना एव उपानबेशों के संदर्भ में भी की गयी। जर्मन नौसेना दस हजार टन के 6 लड़ाक जहाज 12 नाशक जहाज एवं 12 पनडुब्बी नावों से अधिक नहीं रख सकती थी। सबमैरीन जहाज रखने की उन्हें अनमति नहीं थी। उन्हें उपनिवेशों पर से अपने सारे अधिकार ममाप्त करने थे। एक निर्देश के तहत जर्मन साम्राज्य सहयोगी शक्तियों के बीच उस समय उनके द्वार अधिकुन क्षेत्रों के आधार पर बाँटा गया। बाद में लीग ऑफ नेशन्स को इन क्षेत्रों में प्रशामन की निगगनी की जिम्मेदारी सौंपी गयी।

दुसरी महत्वपूर्ण समस्या, जैसा कि बताया जा चुका है, पूर्वी यूरोप के पनर्गठन की थी, पश्चिमी यूरोपीय शक्तियों के समक्ष "पूर्वी प्रश्न" बड़े लंबे समय से बना हुआ था। महायुद्ध ने इस समस्या को और भी अधिक बढ़ा दिया। पुराने आस्ट्रियाई माम्राज्य पर इटली एवं पूर्वी यरोप में उभरे नए राष्ट्रों को अपने अधिकतर क्षेत्र सौंप देने के लिए दबाव डाला गया। हैब्सवर्ग का दूसरा आधा भाग और भी कठोर बर्ताव का शिकार बना। इसका सबसे अधिक फायदा सर्बिया को हुआ जो कि युगोस्लाविया के नए दक्षिणी स्लाव राज्य में परिवर्तित हुआ।

स्वयं तुर्की युद्ध में हार के परिणामस्वरूप आंतरिक राजनैतिक उथल-पुथल के दौर से गुजरा। मुस्तफा कमाल ने सेवरज (Sevreg) संधि जो कि तुर्की एवं सहयोगी शक्तियों के बीच हुई थी, के विरुद्ध राष्ट्रवादी उथल-पुथल को नेतृत्व प्रदान किया। इस दबाव के कारण 1923 में "लाजेन धि" के नाम से एक नई संधि पर हस्ताक्षर किए गए। कमाल अरब बाहुल्य प्रदेशों पर से सारे दावे वापस ले लिए और तुर्की राज्य इस्लामी आधार को त्याग दिया। मुस्तफा कमाल की अध्यक्षता में एक नए तर्की गणराज्य की स्थापना हयी, जैसा कि आप समझ सकते हैं, पूर्वी यूरोप के इस पुनर्गठन ने लगभग उतनी ही समस्याओं को जन्म दिया जितनी समस्याओं का इसने समाधान प्रस्तुत किया। इससे कई मध्यम शक्तियों का जन्म हुआ जैसे पोलैंड, रूमानिया व यूगोस्लाविया। इससे अरब राष्ट्रीयता और फिलिस्तीन में यहूदी सुलझाए। जैसा कि बताया जा चुका है कि लीग के पास अपने निर्णय लाग करने के प्रभावशाली साधन नहीं थे और इसलिए जहाँ भी बड़ी शक्तियों के बीच तनाव उत्पन्न हुआ वहाँ लीग शांति स्थापित करने में सफल न हो सकी। लीग की दो महत्वपूर्ण सहयोगी संस्थाएं इटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस और इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाइजेशन (आई. एल. ओ.) थी। पहली सस्था का कार्य राष्ट्रों के झगड़े निपटाना
या और दूसरी संस्था श्रम से सर्वांधत समस्याओं में हस्तक्षेप करती थी। आज के संदर्भ में ये
दोनों संस्थाएं संयुक्त राष्ट्र (यूनाइटेड नेशन्स) की संरचना का महत्वपूर्ण भाग है।


प्रथम विश्वयुद्ध और भारत

यद्यपि भारत युद्ध से प्रत्यक्ष रूप से नहीं जुड़ा हुआ था लेकिन इसके प्रभावों से यह नहीं बच सका। विश्व युद्ध ने भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था को व्यापक रूप से प्रभावित किया। यह देखना महत्वपूर्ण है कि भारतीय जनसंख्या के विभिन्न वर्गों पर विश्व युद्ध का विभिन्न प्रकार का प्रभाव पड़ा। भारत के सबसे निर्धन वर्गों के लिए युद्ध का अर्थ निर्धनता में और अधिक वृद्धि थी। युद्ध के कारण लोगों पर भारी कर भी लगाए गए। युद्ध की आवश्यकताओं ने कृषि उत्पादनों एवं अन्य रोजमर्रा की आवश्यकताओं को दुर्लभ बना दिया। परिणामस्वरूप वस्तुओं के मूल्यों में अभूतपूर्व बढ़ोतरी हुयी। ऐसी भयावह स्थिति में जनता सरकार के विरुद्ध होने वाले किसी भी आदोलन में शामिल होने को तैयार हो गई। नतीजे के तौर पर युद्ध के वर्ष तीव्र राष्ट्रवादी राजनैतिक आंदोलन के भी वर्ष हो गए। शीघ्र ही असहयोग आंदोलन के रूप में गांधी के नेतृत्व में एक विस्तृत जन आंदोलन उठ खड़ा हुआ जिसके विषय में आप अगली इकाई में जानकारी प्राप्त कर सकेंगे।

दूसरी ओर युद्ध के कारण उद्योगपतियों को बेहद लाभ पहुँचा। युद्ध के कारण ब्रिटेन में आर्थिक संकट पैदा हो गया था और युद्ध की आवश्यकताएं पूरी करने के लिए उन्हें भारतीय उद्योगपतियों पर निर्भर होना पड़ा। उदाहरण के लिए इस अवधि में जूट उद्योग काफी तेजी से बढ़ा। इस दृष्टि से युद्ध के कारण भारत में औद्योगिक उन्नति हुई। भारतीय उद्योगपतियों ने इस अवसर का भरपूर लाभ उठाया। और वह उसे युद्ध के बाद भी सुरक्षित रखना चाहते थे। इसीलिए वे स्वयं को संगठित करने और संगठित राष्ट्रीय आंदोलन में सहयोग करने को तैयार थे।

इस प्रकार युद्ध के साथ भारतीय जनसमदाय के विभिन्न वर्गों के अंदर राष्ट्रीयता की भावना भी आयी, यद्यपि विभिन्न वर्गों के अंतर्गत इसकी प्रक्रिया भिन्न रही। भारत की स्वतंत्र आर्थिक प्रगति भी स्वरूप लेने लगी जिसे विकसित होने में अगले कई वर्ष लगने थे। आगे की इकाई में इस विषय की विस्तत व्याख्या की जाएगी।

निष्कर्ष

यहाँ हमारा उद्देश्य आपके समक्ष प्रथम विश्वयुद्ध के मुख्य कारण और परिणाम प्रस्तुत करना था। आपने महसूस किया होगा कि 1914 में सहयोगी राष्ट्रों का एकमात्र सामान्य उद्देश्य यूरोप से जर्मनी का प्रभुत्व समाप्त करना या। उन्होंने युद्ध रूस में समाजवादी क्रांति लाने, पुराने साम्राज्यों को नष्ट कर देने, नए अरब राष्ट्र स्थापित करने अथवा लीग ऑफ नेशन्स में नये प्रयोग करने के लिए नहीं आरंभ किया था। युद्ध का सबसे अधिक फायदा युद्ध में अशत: शामिल देशों अथवा गैर शामिल देशों को पहुंचा। अमरीका एक बड़े आर्थिक शक्ति के रूप में उभरा। जापान ने प्रशान्त महासागर में नौसेना शक्ति और महत्वपूर्ण आर्थिक शक्ति प्राप्त की, और भारत ने स्वराज्य प्राप्त करने की ओर काफी महत्वपूर्ण प्रगति की। विजयी सहयोगी राष्ट्रों ने कुछ विशेष लक्ष्य प्राप्त कर सकने के बावजूद विश्व के समक्ष बबांदी, ऋण, निर्धनता, शरणार्थी, अल्पसंख्यकों की समस्पायें और अपनी आंतरिक गुटबंदी के रूप में कष्टदायक विरासत पेश की।

Disclaimer:Shubharticles.blogspot.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है | हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध लिंक और सामग्री उपलब्ध कराते है| यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करें Amanyogi190@yahoo.com

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ