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चिपको आन्दोलन


 चिपको आन्दोलन मूलतः उत्तराखण्ड के वनों की सुरक्षा के लिए वहाँ के लोगों के द्वारा 1970 के दशक में आरम्भ किया गया आन्दोलन है इसमें लोगों ने पेड़ों को गले लगा लिया , ताकि उन्हें कोई काट न सके ।

यह आलिंगन दरअसल प्रकृति और मानव के बीच प्रेम का प्रतीक बना और इसे ' चिपको ' की संज्ञा दी गई । चिपको आन्दोलन को ब्रिटिश कालीन वन अधिनियम के प्रावधानों से भी जोड़कर देखा जा सकता है । जिसके तहत पहाडी समुदाय को उसकी दैनिक आवश्यकताओं के लिए भी बनों के सामुदायिक उपयोग से वंचित कर दिया गया था । स्वतंत्र भारत के वन- नियम कानूनों ने भी औपनिवेशिक परम्परा का ही निर्वाह किया ।दूसरी तरफ सरकार ने खेल - कूद का सामान बनाने वाली इलाहाबाद की साइमंड कम्पनी को - गोपेश्वर से एक किलो मीटर दूर मण्डल नाम के वन में ' अंगू के पेड़ काटने की इजाजत दे दी । वनों के ठीक बगल में बसे गाँव वाले जिन वनों को छू भी नहीं सकते थे , अब सरकार ने एक प्राइवेट कम्पनी को काटने की इजाजत दे दी थी ठेकदार एवं वनाधिकारी जब जंगल में कटाने के लिए आए , तब गाँव में सिर्फ महिलाएँ ही उपस्थित थी , लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी , बिना जान की परवाह किए 27 औरतों ने श्रीमती गौरा देवी के नेतृत्व में चिपको आन्दोलन शुरू कर दिया । इस प्रकार 26 मार्च , 1974 को स्वतंत्र भारत के प्रथम पर्यावरण आन्दोलन की नींव रखी गई । चिपको आन्दोलन की माँगे शुरुआत आर्थिक थी , जैसे वनों और पनस्पतियों का शोषण करने वाली दोहन की ठेकेदारी प्रथा को समाप्त कर वन अमिकों की न्यूनतम मजदूरी का निर्धारण , नया वन बंदोबस्त और स्थानीय छोटे उद्योगों के लिए रियायती कीमत पर कच्चे माल की आपूर्ति ।


धीरे - धीरे यह आन्दोलन परम्परागत अल्पजीवी विनाशकार्य अर्थव्यवस्था के खिलाफ स्थायी अर्थव्यवस्था- इकोलॉजी का एक सशक्त जन आन्दोलन बन गया । अब आन्दोलन की मुख्य माँग थी - हिमालय की मुख्य उपज राष्ट्र के लिए जल है , और कार्य मिट्टी बनाना , सुधारना और उसे टिकाए रखना है इसीलिए इस समय खड़े हरे पेड़ों की कटाई उस समय ( 10-25 वर्ष ) तक स्थगित रखी जानी चाहिए । जब तक राष्ट्रीय वन नीति के घोषित उददेश्यों के अनुसार हिमालय में कम से कम 60 % क्षेत्र पेडों से तक न जाए । आन्दोलनकारियों ने स्थायी अर्थव्यवस्था के उद्घोष का नारा दिया क्या हैं


जंगल के उपकार , मिट्टी , पानी और बयार ।

मिट्टी , पानी और बयार . जिंदा रहने के आधार।।


रामचन्द्र गुहा के शब्दों में चिपको प्राकृतिक संसाधनों से सम्बद्ध संघर्षों की व्यापकता का प्रतिनिधित्व करता है इसने एक राष्ट्रीय विवाद का हल प्रदान किया । विवाद यह था कि हिमालय के वनों की सर्वाधिक सुरक्षा किसके हाथ में होगी ? स्थानीय समुदाय , राज्य सरकार या निजी पूँजीपतियों के हाथ । मसला यह भी था कि कौन से पेड़ - पौधे लगाए जाएँ - शंकु वृक्ष , चौडे पत्ते पाले पेड़ या विदेशी पेड़ और फिर सवाल उठा कि धनों के असली उत्पाद क्या है ? उद्योगों के लिए लकड़ी , गाँव के लोगों के लिए जैव सम्पदा या पूरे समुदाय के लिए आवश्यक मिट्टी , पानी और स्वच्छ हवा अतः पूरे देश के लिए धन्य नीति निर्धारण की दिशा में इस क्षेत्रीय विवाद ने एक राष्ट्रीय स्वरूप ले लिया ।


आन्दोलन : उत्तर भारत का चिपको आन्दोलन दक्षिण भारत में अप्पिको आन्दोलन के रूप में उभर कर सामने आया । अप्पिको कन्नड भाषा का शब्द है , जो ' चिपको का पर्याय है । 


पर्यावरण सम्बन्धी जागरूकता का - यह आन्दोलन अगस्त 1983 में कर्नाटक के उत्तर कन्नड क्षेत्र में शुरू हुआ । यह आन्दोलन पूरे जोश से लगातार 38 दिन तक चलता रहा । युवाओं ने जब पाया कि उनके गाँवों के चारों ओर के जंगल धीरे - धीरे गायब होते जा रहे हैं तो वे इस आन्दोलन में जोर - शोर से लग गए । लोगों ने पाया कि - कागज पर तो प्रति एकड़ दो पेड़ों की कटायी जाती है , लेकिन असल में काफी अधिक पेड़ काटे जाते हैं । सितम्बर 1983 में सलकानी तथा निकट के गांवों से युवा और महिलाओं ने पास के जंगलों तक 5 मील की यात्रा करके वहाँ के पेड़ों को गले लगाया । अप्पिको आन्दोलन दक्षिण भारत में पर्यावरण चेतना का श्रोत बना । इसने इस बात को उजागर किया कि किस प्रकार वन विभाग की नीतियों से व्यापारिक वृक्षों को बढ़ावा दिया जा रहा है । जो आम आदमी को दैनिक जीवन में उपयोग होने वाले कई आवश्यक संसाधनों से पंचित कर रहा है । उसने उन ठेकेदारों के व्यावसायिक हितों के लालच का पर्दाफाश किया , जो वन विभाग द्वारा निर्धारित संख्या से अधिक पेड़ काटते थे । इसने इस प्रक्रिया में लिप्त ठेकेदारों , वन विभाग तथा राजनीतिज्ञों की सांठ - गांठ का भी पर्दाफाश किया । यह आन्दोलन अपने तीन प्रमुख उद्देश्यों में सफल रहा ।


( 1) मौजूदा वनक्षेत्र का संरक्षण करने ,

 ( 2 ) खाली भूमि पर वृक्षारोपण करने ,

( 3 ) तथा प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण को ध्यान में रखकर उनका सदजपयोग करने में ।


 इस उद्देश्यों को हासिल करने में स्थानीय स्तर पर स्थापित एक लोकप्रिय संगठन परिसर सरक्षण केन्द्र ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की । इस आन्दोलन ने लोगों के जबीन में उपयोग की जाने वाली चीजों की रक्षा की जैसे- बाँस के वृक्ष , जिनका उपयोग हस्तशिल्प की वस्तुओं को बनाने में होता है । तथा जिनको बेचकर स्थानीय लोगा अपनी आजीविका चलाते हैं । इस आन्दोलन ने पश्चिमी घाट के सभी गाँवों में व्यापारिक हितों से उनकी आजीविका के साधन , जंगलों तथा पर्यावरण को होने वाले खतरों से सचेत किया । अप्सिको ने शांपिपूर्ण तरीके से गाँधीवादी मार्ग पर चलते हुए एक ऐसे पोषण कार्य समाज के लिए लोगों का पथ प्रदर्शन किया , जिसमें न कोई मनुष्य का और न कोई प्रकृति का शोषण कर सके । बंदना शिवा के शब्दों में यह मानव अस्तित्व के खतरे को रोकने में सभ्य समाज का सभ्य उत्तर था।


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