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राजनीतिक सिद्धांत की प्रकृति (NATURE OF POLITICAL THEORY)

राजनीतिक सिद्धांत की प्रकृति

(NATURE OF POLITICAL THEORY)


राजनीतिक सिद्धांत की परंपरा बहुत पुरानी है। राजनीतिक सिद्धांत की प्रकृति इसके अर्थ के साथ संबधित है जबकि राजनीतिक सिद्धांत के अर्थ में भिन्न भिन्न विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं। इसीलिए इसकी प्रकृति के बारे में भी अलग अलग विचार पाए जाते हैं। इसलिए अध्ययन की दृष्टि से राजनीतिक चिंतन को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है

परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत की प्रकृतिः परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत की प्रकृति को शास्त्रीय चिंतन के नाम से भी जाना जाता है परंपरावादी विचारकों में मुख्यतः प्लेटो, अरस्तु, हॉब्स, लॉक, कांट, हीगेल, मिल,मांटेस्क्यू, कार्ल मार्क्स के नाम उल्लेखनीय है


परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत की मुख्य विशेषताओं का अध्ययन निम्नलिखित आधार पर किया जा सकता है

1. वर्णनात्मक अध्ययन: परंपरागत चिंतन की मुख्य खासियत या कहे तो विशेषता यह है कि यह मुख्यत: वर्णनात्मक है। जिसका तात्यपर यह है कि इसमें केवल राजनीतिक संस्थाओं और उससे जुडी समस्याओं का वर्णन किया जाता था। उस संस्था में सुधार व समस्याओं को दूर करने के लिए कोई सुझाव या समाधान प्रस्तुत नहीं किया जाता था। अतः इस प्रकार का अध्ययन न तो विश्लेषणात्मक था और न ही व्याख्यात्मक यह केवल वर्णनात्मक था।

2. समस्याओं को सुलझाना : परंपरागत लेखकों के द्वारा जिन ग्रंथो की रचनाएँ की गई हैं उसमें मुख्य उन परेशानियों का वर्णन किया गया है जोकि उस समय के समाज में मौजूद थी, अतः इन विद्वानों द्वारा उन समस्याओं के लिए स्थायी समाधान ढूँढ़ने की कोशिश की गई है। प्लेटो ने यूनानी नगर राज्यों में व्याप्त राजनीतिक भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए 'दार्शनिक राजा' का वर्णन किया वहीं दूसरी तरफ मैक्यावली ने इटली की  दुर्दशा को देखकर, राजा को अपने राज्य को मजबूत तथा विस्तृत करने के लिए झूठ, कपट, हत्या अन्य सभी प्रकार के साधनों के प्रयोग करने का अधिकार व आदेश देता है। इसी प्रकार हॉब्स भी अराजकता की स्थिति को समाप्त करने के लिए अपनी पुस्तक 'लोवियाथन' में निरंकुश राजतंत्र का समर्थन करता है। इस प्रकार परंपरागत चिंतकों द्वारा मुख्यतः तत्कालीन समाज में मौजूद समस्याओं के समाधान की तरफ ही ध्यान दिया गया। और उनसे ही संबंधित रचना की।

3. नीतिशास्त्र,धर्म,और दर्शन का प्रभाव: परंपरागत चिंतन की एक अन्य विशेष खूबी यह रही कि वे  दर्शन और धर्म से विशेष रूप से प्रभावित रहे हैं तथा उनमें नैतिक मूल्य विद्यमान रहे हैं। प्लेटो और अरस्तु के चिंतन में इनका कम प्रभाव दिखाई पड़ता है जबकि मध्ययुग में ईसाई धर्म ने चिंतकों के चिंतन को बहुत प्रभावित किया है। धर्म और राज्य की लड़ाईयों में यूरोप के कई विद्वानों द्वारा धर्म का पक्ष लिया गया है और कहा कि  राज्य, धर्म से श्रेष्ठ नहीं है तथा धर्माधिकारी राज्य के मामलों में हस्तक्षेप कर सकता है। इसका समर्थन सर्वप्रथम थामस एक्वीनास द्वारा किया गया। बाद में विलियम आकम ने भी इस दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया।

4. क़ानूनी औपचारिक तथा संस्थागत अध्ययनः परंपरागत अध्ययन मुख्यतः क़ानून द्वारा निर्मित औपचारिक संस्थाओं के अध्ययन तक ही सीमित था तथा संस्थाओं का मात्र संरचनात्मक अध्ययन किया गया था इन विचारों राजनीतिक सिद्धांत की प्रकृति के द्वारा औपचारिक संस्थाओं के बाहर जाकर अध्ययन करने का प्रयास नहीं किया गया। लॉस्की और मुनरो आदि जैसे विद्वानों ने भी अपने अध्ययन में संस्थाओं के क़ानूनी व औपचारिक रूप का ही अध्ययन किया है।

5. आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत की प्रकृतिः जहाँ तक आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत की प्रकृति का सवाल है। तो इसके निर्धारण में सबसे बड़ा योगदान आनुभविक पद्धतियों को रहा है। जिनके द्वारा इस बात पर बल दिया गया कि राजनीतिक अध्ययन के लिए वैचारिक पद्धति अपनाई जाए। जिसके अंतर्गत सिद्धांतों में तथ्यों और मूल्यों पर बल दिया जाता है। इसके अतिरिक्त अब समाजशास्त्र और मनोविज्ञान जैसी विधाओं से भी खुलकर सहायता ली जाने लगी है। इनके पहले प्रभाव के कारण ही शक्ति, प्रभाव, सत्ता राजनीतिक अभिजन, राजनीतिक संस्कृति तथा राजनीतिक विकास जैसे विभिन्न अवधारणाओं का जन्म हो पाया है। शक्ति सिद्धांत विशेष योगदान चार्ल्स मेरियम और हैरोल्ड लासवैल का रहा है वहीं मोस्का, पेरेटो और राबर्ट मिचेल्स ने 'राजनीतिक अभिजन' की धारणा को विकसित किया है। डेविड ईस्टन ने भी 'व्यवस्था विश्लेषण' सिद्धांत के अंतर्गत निर्णय लेने की प्रक्रिया को निवेश एवं निर्गत के माध्यम से समझाया है।

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