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भारत मे धर्मनिरपेक्षता (Secularism in india)

प्रस्तावना
भारत की स्वतंत्रता और विभाजन के बाद भारतीय राष्ट्रीय नेताओं को देश के संविधान का निर्माण करना था। अनेक प्रकार की विविधता वाले देश में संविधान निर्माताओं को भारत में राजनीतिक एकता मजबूत करनी थी, राष्ट्रीय एकता को बल प्रदान करना था। भारतीय समाज जातिवाद, संप्रदायवाद, धार्मिक अंधविश्वासों से ग्रस्त था, इसका समाधान करना आवश्यक था। विभिन्न समस्याओं से जूझ रहे भारतीय लोकतंत्र की सफलता के लिए आर्थिक विकास जरूरी था। देश के सर्वांगीण विकास के लिए लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता को मजबूत करना आवश्यक था क्योंकि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं एक के बिना दूसरा अधूरा है। लोकतंत्र के बिना धर्मनिरपेक्षता मताग्रह की शिकार हो जाती। इसी प्रकार धर्मनिरपेक्षता के अभाव में लोकतंत्र, रूढ़िवाद, अलगाववाद, तानाशाही अथवा फासीवाद का शिकार हो जाता है। निर्धनता, जातीय भिन्नता और विकास की समस्याओं की अत्यधिक जटिलता का परिवेश होने के बावजूद संविधान निर्माताओं ने धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र को अपनाया तथा संविधान सभा के सदस्यों ने धर्मनिरपेक्षता सिद्धांत को संविधान में शामिल करने के लिए बहस की तथा संविधान में धर्मनिरपेक्षता शब्द जोड़ने के लिए कई सदस्यों के मतभेद भी सामने आये।


धर्मनिरपेक्षता से तात्पर्य

धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य राजनीति या किसी गैर-धार्मिक मामले से धर्म को दूर रखे तथा सरकार धर्म के आधार पर किसी से भी कोई भेदभाव न करे। 

धर्मनिरपेक्षता का अर्थ किसी के धर्म का विरोध करना नहीं है बल्कि सभी को अपने धार्मिक विश्वासों एवं मान्यताओं को पूरी आज़ादी से मानने की छूट देता है।

धर्मनिरपेक्ष राज्य में उस व्यक्ति का भी सम्मान होता है जो किसी भी धर्म को नहीं मानता है।

धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में धर्म, व्यक्ति का नितांत निजी मामला है, जिसमे राज्य तब तक हस्तक्षेप नहीं करता जब तक कि विभिन्न धर्मों की मूल धारणाओं में आपस में टकराव की स्थिति उत्पन्न न हो।

धर्मनिरपेक्षता के संबंध में महान नेताओं के विचार

1.महात्मा गांधी के विचार:
⇒ महात्मा गांधी अपने निजी और सार्वजनिक दोनों जीवन में एक धार्मिक व्यक्ति थे और वे राजनीति और धर्म के मध्य नज़दीकी संबंध के हिमायती थे।
⇒ गांधी राजनीति को नैतिकता के मूल्यों पर आधारित करना चाहते थे और उनके नैतिकता के मूल्य धार्मिक रंग में रंगे हुए थे।

2.पंडित नेहरू के विचार:
⇒ नेहरू गांधी के उलट राजनीति व धर्म के बीच किसी भी प्रकार का कोई भी संबंध रखने के खिलाफ थे। वे धर्मनिरपेक्षता को भारतीय स्वभाव में समायोजित करना चाहते थे।
⇒ लेकिन दोनों नेता भारत जैसे बहुलवादी देश में धर्मनिरपेक्षता को विभिन्न धर्मों के बीच सद्भाव स्थापित करने का एक सशक्त माध्यम मानते थे।

3.डॉ. अंबेडकर के विचार:
⇒ अंबेडकर मानते थे कि प्रारंभ में तो अल्पसंख्यकों के आस्तित्त्व को मान्यता दी जानी चाहिये। किन्तु हल ऐसा होना चाहिये कि अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक आगे चलकर एक दिन एक-दूसरे में घुल-मिल जाएँ

संविधान सभा मे धर्मनिरपेक्षता पर बहस

संविधान सभा के चुनाव जुलाई 1946 में केबिनेट मिशन योजना के अनुसार हुए थे। कांग्रेस को प्रान्तीय चुनावों में भारी सफलता मिली तथा संविधान सभा में कांग्रेस के सदस्य बहुसंख्या में थे। कांग्रेस को 212 सामान्य वर्ग की सीटों में 203 सीटें मिली तथा अन्य वर्ग में 4 मुस्लिम तथा 1 सिख सदस्य भी शामिल थे। इस तरह कांग्रेस को 296 सीट में 208 सीट मिली ।। इस तरह उपसमितियों के अतिरिक्त अल्पसंख्यकों की स्थिति के विषय में बनी उपसमिति के भी अध्यक्ष थे। उनकी स्पष्ट राय थी कि भारत को यदि अखण्ड रखना है तो अल्पमत-बहुमत की धारणा को समाप्त करना ही होगा तथा सरदार पटेल राष्ट्रीय एकता व अखण्डता के लिए सदैव कटिबद्ध थे। इसलिए उन्होंने संविधान में पृथक स्थान की मांग को ठुकरा दिया और उन्होंने किसी भी सांप्रदायिक आधार पर किसी भी स्थान को सुरक्षित न करने का एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया । इस प्रकार की किसी भी मांग को कोई महत्व नहीं दिया क्योंकि सरदार पटेल पूरी तरह से राष्ट्रीय एकता और अखण्डता के लिए प्रतिबद्ध थे।

इसी तरह संविधान सभा बहस में महावीर त्यागी ने कहा था कि अनुसूचित जाति, सिक्ख, मुस्लिम और हिन्दू किसी को भी किसी भी तरह के आरक्षण की मांग नहीं करनी चाहिए क्योंकि हम एक सेक्युलर राज्य हैं। इसलिए हम किसी भी धार्मिक समूह और व्यक्ति विशेष को कोई लाभ या आरक्षण नहीं देंगे।"

कृष्णस्वामी ने भी संविधान सभा में कुछ इसी तरह का दृष्टिाकोण पेश किया कि "समुदायों को नागरिक अधिकार के आधार पर स्थापित नहीं होना चाहिए. क्योंकि एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में प्रतिनिधित्व का अधिकार सिर्फ क्षेत्राधिकार को प्रस्तुत करने का अधिकार है जिसमें सभी समुदाय के लोग रहते हैं। इस तरह कृष्णस्वामी का दृष्टिकोण था कि धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में भारत के संविधानिक ढाँचे में धार्मिक समुदाय स्थापित नहीं किया जाना चाहिए।

संविधान सभा की बहस में मौहम्मद इस्माईल लीग से मद्रास के सदस्य थे। उन्होंने पर्सनल लॉ के बचाव में तर्क प्रस्तुत किया कि "किसी समूह या समुदाय के लोगों को अपने पर्सनल लॉ का पालन करने का अधिकार मौलिक अधिकार है तथा पर्सनल लॉ का अधिकार जीवन व्यतीत करने का एक भाग है। ऐसे लॉ उनके धर्म और संस्कृति के भाग हैं । अगर कोई पर्सनल लॉ को प्रभावित करता है तो यह जीवन की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप के बराबर होगा तथा राज्य को जीवन की स्वतंत्रता और लोगों के धार्मिक जीवन में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।

इसी तरह पर्सनल लॉ पर महबूब अली बेग साहिब बहादुर ने बहस में कहा था कि "जो मानते हैं कि धर्मनिरपेक्ष राज्य में समान कानून होना चाहिए तथा नागरिकों के सभी मामलों में जिसमें उनकी रोजमर्रा की जिंदगी, उनकी भाषा, उनकी संस्कृति और उनके पर्सनल लॉ भी शामिल है इनमें भी समान कानून हो वे सभी दिशाहीन हैं जो ऐसा मानते हैं बल्कि धर्मनिरपेक्ष राज्य में विभिन्न समुदाय के लोग रहते है उन्हें अपने धर्म को मानने की स्वतंत्रता, अपने निजी जीवन और उनके पर्सनल लॉ उनके अनुसार ही लागू किये जाने चाहिए तथा पर्सनल लॉ पर इनका मानना था कि प्रत्येक समुदाय के अपने पर्सनल लॉ होते हैं जो उनके धार्मिक जीवन और संस्कृति से प्रभावित होते हैं । राज्य को इनमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए और राज्य को ऐसे पर्सनल लॉ मानने की स्वतंत्रता प्रदान करनी चाहिए।

राज्य द्वारा संरक्षित शिक्षा संस्थानों में धार्मिक शिक्षा दिये जाने पर बहस में तजमूल हुसैन धर्म के अधिकारों को निजी धर्म की वकालत के रूप में परिभाषित नहीं करना चाहते थे परन्तु यह आग्रह करना चाहते थे कि धार्मिक निर्देश सिर्फ घर पर अभिभावक द्वारा मिलना चाहिए न कि शिक्षा संस्थानों में। तथा तजमूल हुसैन संविधान में यह अनुच्छेद जोड़ना चाहते थे कि किसी भी व्यक्ति के पास ऐसे प्रतीक, निशान या नाम नहीं होगा और न ही व्यक्ति ऐसे कपड़े पहनेगा जिससे उसका धर्म पहचाना जा सके।"

इसी तरह 30 अगस्त, 1947 को रेणुका रॉय ने एक संशोधन पेश किया कि कोई भी धार्मिक दिशा निर्देश राज्य द्वारा संरक्षित विद्यालय या शिक्षा संस्थानों में नहीं दिया जाएगा। इसी तरह राधाकृष्ण ने इस संशोधन के पीछे तर्क प्रस्तुत किया कि "हम एक बहुधार्मिक राज्य हैं, इसलिए हमें निष्पक्ष रहना है और विविध धर्मों के साथ समान व्यवहार करना है। इसलिए राज्य द्वारा संरक्षित संस्थानों में धार्मिक शिक्षा या निर्देश नहीं दिये जा सकते। इस दिशा में धर्मनिरपेक्षता को और अधिक गूढ़बनाते हुए गुप्तांश सिंह ने कहा था कि "राज्य सभी ईश्वरों का ईश्वर है। मैं कहना चाहूँगा कि राज्य लोगों का प्रतिनिधि होगा जो खुद में एक ईश्वर है । संविधान सभा में दिए गए इन वक्तव्यों से स्पष्ट है कि संविधान निर्मातागण धर्म को निजी मामला मानते थे धर्म के मामले में राज्य का दखल नकार दिया गया और समानता एवं स्वतंत्रता के साथ सेकुलरिज्म पर जोर दिया गया ।

भारत में धर्मनिरपेक्षता का स्वरूप:

⇒ भारतीय धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा अमेंरिका की तरह धर्म और राज्य के बीच अलगाव पर आधारित नही है।
⇒ भारत की धर्मनिरपेक्षता न तो पूरी तरह धर्म के साथ जुड़ी है और न ही इससे पूरी तरह तटस्थ है। भारतीय धर्मनिरपेक्षता के इन मूल्यों को ही सैद्धान्तिक अंतर के रूप में बताया गया है।
⇒ गौरतलब है कि भारत के सुप्रीम कोर्ट ने केशवानंद मामले में दिए अपने निर्णय में धर्मनिरपेक्षता को भारत की आधारभूत संरचना का हिस्सा माना है।

भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता का उल्लेख:

⇒ धर्मनिरपेक्षता शब्द का प्रयोग भारतीय संविधान के किसी भाग में नहीं किया गया था, लेकिन संविधान में कई ऐसे अनुच्छेद मौज़ूद थे जो भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाते हैं। तथा भारतीय संविधान निर्माताओं ने मूल अधिकारों के अंतर्गत बहुत से ऐसे प्रावधान किये हैं, जो राज्य की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति को बढ़ावा देते हैं।
⇒ मसलन संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत देश के सभी नागरिक कानून की नज़र में एक समान हैं।
⇒ वहीं अनुच्छेद 15 के तहत धर्म, जाति, नस्ल, लिंग और जन्म स्थल के आधार पर भेदभाव पर पाबंदी लगाई गई है।
⇒ अनुच्छेद 16 के तरह तक सार्वजनिक रोज़गार के क्षेत्र में सबको एक समान अवसर प्रदान करने की बात की गई है। (कुछ अपवादों के साथ)

⇒ संविधान के अनुच्छेद 25 में प्रत्येक व्यक्ति को अपने धार्मिक विश्वास और सिद्धांतों का प्रसार करने या फैलाने का अधिकार है।
⇒ अनुच्छेद 26 धार्मिक संस्थाओं की स्थापना का अधिकार देता है। इसके अलावा अनुच्छेद 27 कहता है कि नागरिकों को किसी विशिष्ट धर्म या धार्मिक संस्था की स्थापना या पोषण के एवज में कर देने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता।
⇒ अनुच्छेद 28 कहता है कि राज्य की आर्थिक सहायता द्वारा चलाए जा रहे शैक्षणिक संस्थानों में धार्मिक शिक्षा नही दी जाएगी।
⇒ जबकि संविधान का अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यक समुदायों को स्वयं के शैक्षणिक संस्थान खोलने एवं उन पर प्रशासन का अधिकार देता है।

⇒ भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता शब्द की बजाय पंथनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग 1976 में 42वें संविधान संशोधन के द्वारा संविधान की प्रस्तावना में शामिल किया गया है।
⇒ संविधान के अधीन भारत एक पंथनिरपेक्ष राज्य हैं, ऐसा राज्य जो सभी धर्मों के प्रति तटस्थता और निष्पक्षता का भाव रखता है।

भारतीय न्यायालय द्वारा धर्मनिरपेक्षता पर निर्णय

धर्मनिरपेक्ष होते हुए भी भारत को सांप्रदायिकता के कारण उत्पन्न संकटों का सामना करना पड़ा है। कुछ ऐसे राजनीतिक दलों का भी उदय हुआ है जिन्होंने भारत के धर्मनिरपेक्षता पर प्रहार किया है या फिर सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया। कालान्तर में धर्मनिरपेक्षता शब्द का प्रयोग हर राजनीतिक दल मात्र एक नारे के रूप में करता है और धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्धता घटी है और धर्मनिरपेक्षता शब्द एक राजनीतिक शब्दावली बन गया है सभी राजनीतिक पार्टी खुद को दूसरे से अधिक धर्मनिरपेक्षता घोषित करती हैं। इसलिए धर्मनिरपेक्षता शब्द एक राजनीतिक नारे के रूप में प्रयोग किया जाता है। यहाँ तक कि यह हमारे राजनीतिक प्रचार का तो भाग है परन्तु राजनीतिक दर्शन का नहीं। समय-समय पर धर्मनिरपेक्षता शब्द का गलत प्रयोग हुआ है। इसलिए धर्मनिरपेक्षता का बचाव करते हुए न्यायपालिका ने कई महत्त्वपूर्ण निर्णय दिए हैं। इनमें सेकुलरिज्म को मजबूती मिली है।

मौहम्मद हनीफ कुरैशी बनाम बिहार राज्य 1958 के मामले में गाय वध पर प्रतिबंध लगाने पर हनीफ का कहना था कि उसका धार्मिक सम्प्रदाय के अनुसार बकरीद के अवसर पर गाय की बलि की परंपरा है, जो उसका धार्मिक अधिकार है इसलिए गौ हत्या पर प्रतिबंध लगने से अनुच्छेद 25 का उल्लंघन हो रहा है परन्तु कोर्ट ने कहा कि राज्य गौ हत्या का निषेध कर रहा है - मुस्लिम धार्मिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं कर रहा। कोर्ट ने कारण बताते हुए कहा कि कुरान में सिर्फ गाय की बलि चढ़ाने का कोई संतोषजनक प्रमाण नहीं है । इसलिए कुरान गाय की बलि चढ़ाने का आदेश नहीं देता। इसलिए राज्य के पास गाय की हत्या निषेध करने का धर्मनिरपेक्ष कारण है और कोर्ट ने यह भी कहा कि धार्मिक स्वतंत्रता में केवल वही धार्मिक प्रथा शामिल है जो आवश्यक है।

केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य 1973 यह मामला भारतीय संविधान से संबंधित है इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि संसद को संविधान के मूल ढांचे को संशोधन करने का कोई अधिकार नहीं है, तथा न्यायालय ने यह भी कहा कि संविधान के सारे प्रावधान जिनमें मौलिक अधिकार भी शामिल हैं संशोधित किये जा सकते हैं फिर भी संसद संविधान का मूल ढाँचा जैसे धर्मनिरपेक्षता, संघवाद, लोकतंत्र, शक्तियों का विभाजन आदि को परिवर्तित नहीं कर सकती तथा धर्मनिरपेक्ष संविधान के मूल ढाँचे में शामिल है इसलिए धर्मनिरपेक्षता का संशोधन करके इसे हटाया नहीं जा सकता।

बोम्मई निर्णय 1994- इस मामले में न्यायालय ने कहा कि अगर संविधान आदेश देता है कि राज्य को विचार और प्रक्रिया से धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए तो यही आदेश राजनीतिक दलों के लिए भी है तथा धर्म को राजनीति में लाने का मतलब है संवैधानिक व्यवस्था में असंतुलन बनाना। संविधान के अनुसार राजनीतिक पार्टी और धार्मिक संगठन एक साथ नहीं हो सकते तथा एक समय में कोई एक ही रूप हो सकता है। इसलिए धर्मनिरपेक्षता को संविधान के मूल ढाँचे से हटाने के लिए संविधान संशोधन नहीं किया जा सकता और न ही संविधान बदला जा सकता है। इस निर्णय से ज्ञात होता है कि धर्मनिरपेक्ष भारतीय लोकतंत्र का अभिन्न अंग है । इसलिए संसद भी संशोधन करके धर्मनिरपेक्षता को नहीं हटा सकती।

निष्कर्ष:
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि भारतीय राज्य का धर्मनिरपेक्ष चरित्र वस्तुतः इसी वजह से बरकरार है कि वह किसी धर्म को राजधर्म के रूप में मान्यता प्रदान नहीं करता है।


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