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भारत की विदेश नीति (औपनिवेशिक भारत -1964) «(Foreign policy of india) »


किसी भी देश की विदेश नीति इतिहास से गहरा सम्बन्ध रखती है । भारत की विदेश नीति भी इतिहास और स्वतन्त्रता आन्दोलन से सम्बन्ध रखती है । ऐतिहासिक विरासत के रूप में भारत की विदेश नीति आज उन अनेक तथ्यों को समेटे हुए है जो कभी भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन से उपजे थे ।

1950 में संसद में बोलते हुए नेहरु जी ने कहा था- " आज यह नहीं समझना चाहिए कि हम विदेश नीति के सर्वथा नए युग की शुरुआत कर रहे हैं , बल्कि हमारी विदेश नीति ऐसी है जो अतीत के सुन्दर इतिहास और राष्ट्रीय आन्दोलन से सम्बन्धित है । इसका विकास उन सिद्धान्तों के आधार पर हुआ है जिनकी घोषणा हम अतीत में कर चुके हैं । इसका तात्पर्य यही है कि भारत की विदेश नीति के निर्माण में परम्परा तथा स्वतन्त्रता संग्राम की महत्वपूर्ण भूमिका रही है । यहां शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व व विश्वशान्ति का विचार हजारों वर्ष पुराने उस चिन्तन का परिणाम है जिसे महात्मा बुद्ध व महात्मा गांधी जैसे विचारकों ने प्रस्तुत किया था ।
इसी तरह भारत की विदेश नीति में उपनिवेशवाद , साम्राज्यवाद व रंगभेद की नीति का विरोध महान राष्ट्रीय आन्दोलन की उपज है ।

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स्वतन्त्रता से पहले (औपनिवेशक )भारत की विदेश नीति का निर्माण।

यद्यपि स्वतन्त्रता से पहले भारत की विदेश नीति का विकास भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासनकाल ही हुआ , लेकिन इससे पहले भी भारतीय चिन्तन में शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व , अहिंसा जैसे सिद्धान्तों के साथ - साथ कौटिल्य के चिन्तन में कूटनीतिक उपायों का भी वर्णन मिलता है । कुछ विद्वान तो आज भी यह मानते हैं कि विदेश नीति के कुछ उपकरण व साध्य कौटिल्य की ही देन है । भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासनकाल में अंग्रेजों ने भारत की विदेश नीति का निर्धारण अपने व्यापारिक हितों की सुरक्षा व वद्धि के लिये किया था
अंग्रेजों ने चीन , अफगानिस्तान तथा तिब्बत को बफर स्टेट माना । उन्होंने चीन में भी विशेष रुचि ली और भारत - चीन सीमा का निर्धारण किया । अंग्रेजों ने नेफा ( अरुणाचल प्रदेश ) को भारतीय सीमा में ही रखा और भूटान व सिक्किम को विशेष महत्व दिया। उन्होंने अपने व्यपारिक हितों के लिये इस क्षेत्र मे सुरक्षा का जिम्मेदारी खुद ही संभाली।

भारत की विदेश नीति के आधुनिक सिद्धान्तों का निर्माण भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना होने के बाद ही हुआ । 1885 से ही कांग्रेस ने अंग्रेजों की दमनकारी नीति का विरोध करना शुरु कर दिया और कुछ ऐसे बुनियादी सिद्धान्तों की नींव डाली जो आज भी भारत की विदेश नीति का आधार है अर्थात् राष्ट्रीय आन्दोलन में कांग्रेस की वास्तविक भूमिका व स्वतन्त्रता आन्दोलन के अनुभव ही आधुनिक भारत की विदेश नीति की पष्ठभूमि हैं कांग्रेस की स्थापना से पहले भारतीयों का विदेश नीति निर्धारण में कोई योगदान नहीं था । कांग्रेस की स्थापना के बाद ही भारत विदेश नीति के निर्धारण में भूमिका ने जन्म लिया । 1885 में पारित एक प्रस्ताव द्वारा कांग्रेस ने उत्तरी वर्मा को अपने क्षेत्र में मिला लेने से ब्रिटेन की निन्दा की । इसी तरह 1892 में एक अन्य प्रस्ताव द्वारा भारत ने अपने आपको अंग्रेजों की साम्राज्यवादी नीतियों से स्वयं को स्वतन्त्रता बताया । इसी दौरान कांग्रेस ने भारत को बर्मा अफगानिस्तान , ईरान , तिब्बत आदि निकटवर्ती राज्यों के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही हेतु प्रयोग किये जाने पर असंतोष जताया गया । यह भारत की असंलग्नता की नीति की ही पष्ठभूमि थी प्रथम विश्व युद्ध तक कांग्रेस का अंग्रेजों के प्रति दष्टिकोण - असंलग्नता की नीति का पालन अर्थात् ब्रिटिश नीतियों से स्वयं को दूर रखना ही रहा । इस दौरान कांग्रेस ने अंग्रेजों की साम्राज्यवादी व उपनिवेशवादी तथा दक्षिण अफ्रीका में लाई जा रही रंगभेद की नीति का विरोध किया जो आगे चलकर आधुनिक भारत की विदेश नीति का महत्वपूर्ण उद्देश्य व सिद्धान्त बनी । प्रथम विश्व युद्ध के बाद 1921 में कांग्रेस ने घोषणा की कि ब्रिटिश सरकार की नीतियां भारत की नीतियां नहीं है और न ही वे किसी तरह भारत की प्रतिनिधि हो सकती । कांग्रेस ने यह भी घोषणा की कि भारत को अपने पड़ोसी देशों से कोई खतरा व असुरक्षा की भावना नहीं है । इसी कारण 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध में कांग्रेस ने अंग्रेजी हितों के लिए शामिल होने से मना कर दिया था । 1920 में चलाए गए खिलाफत आन्दोलन में भी भारत ने मुस्लमानों का साथ दिया जो आज भी भारत की अरब समर्थक विदेश नीति का द्योतक है । भारत ने हमेशा ही अरब - इजराइल संकट में अरबों का ही पक्ष लिया है । इसी दौरान कांग्रेस ने उपनिवेशवाद व साम्राज्यवाद विरोधी सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया और उपनिवेशवाद के शिकार देशों के साथ मिलकर अंग्रेजों की नीतियों की निन्दा की । कांग्रेस के ही प्रयासों के परिणामस्वरूप 15 अगस्त , 1947 को भारत आजाद हो गया और अब भारत ने स्वतन्त्र विदेश नीति का निर्माण किया जो अतीत के अनुभवों पर व राष्ट्रीय आन्दोलन से प्रभावित थी

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 1947-1964 तक भारत की विदेश नीति

भारत बड़ी विकट और चुनौतीपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में आजाद हुआ था दुनिया महायुद्ध की तबाही से अभी बाहर निकली थी और उसके सामने पुनर्निर्माण का सवाल प्रमुख या एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था बनाने के प्रयास हो रहे थे और उपनिवेशवाद की समाप्ति के फलस्वरूप दुनिया के नक्शे पर नाए देश नमूदार हो रहे थे नए देशों के सामने लोकतंत्र कायम करने और अपनी जनता की भलाई करने को दोहरी चुनौती थी । स्वतंत्रता के तुरंत बाद भारत ने जो विदेश नीति अपनाई उनमें हम इन सारे सरोकारों की झलक पाते हैं । वैश्विक स्तर के इन सरोकारों के अलावा भारत की कुछ अपनी चिताएँ भी श्री । अंग्रेजी सरकार अपने पीछे अंतर्राष्ट्रीय विवादों की एक पूरी विरासत छोङ गई थी ; बटवारे के कारण अलग से दवाव पैदा हुए थे और गरीबी मिटाने का काम सामने मुँह बाए खड़ा था । कुल जमा इन्हीं सदी के बीच भारत में एक स्वतंत्र राष्ट्र - राज्य के रूप में अंतर्राष्ट्रीय मामलों में भागीदारी शुरू की । एक राष्ट्र के रूप में भारत का जन्म विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि में हुआ था । ऐसे में भारत ने अपनी विदेश नीति में अन्य सभी देशों की संप्रभुता का सम्मान करने और शांति कायम करकं अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने का लक्ष्य सामने रखा इस लक्ष्य की प्रतिध्वनि संविधान के नीति - निर्देशक सिद्धांतों में सुनाई देती है ।

भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रीय एजेंडा तय करने में निर्णायक भूमिका निभाई । वे प्रधानमंत्री के साथ - साथ विदेश मंत्री भी थे । प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री के रूप में 1946 से 1964 तक उन्होंने भारत की विदेश नीति की रचना और क्रियान्वयन पर गहरा प्रभाव डाला ।

उसके शासन काल में भारत की विदेश नीति के कुछ नये सिद्धान्तों की नींव पड़ी। उसकी विदेश नीति के वही सिद्धान्त आज भी भारत की विदेश नीति के उद्देश्य व सिद्धान्त हैं । ये उद्देश्य व सिद्धान्त निम्नलिखित है :

(1) उपनिवेशवाद , साम्राज्यवाद व रंगभेद की नीति का विरोध ।
(2)विश्व शान्ति का समर्थन ।
(3) पंचशील व शान्तिपूर्ण सह - अस्तित्व का सिद्धान्त
(4) गुटपनिरपेक्षता का सिद्धान्त ।
( 5)निःशस्त्रीकरण का समर्थन ।
(6) मानवाधिकारों में विश्वास ।
(7) अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को शान्तिपूर्ण ढंग से हल करना।
(8) पड़ोसी देशों के साथ मधुर सम्बन्ध ।
(9) आदर्शवादी व यथार्थवाद का सुन्दर समन्वय
(10) संयुक्त राष्ट्र संघ का समर्थन ।


यद्यपि 1925 में ही नेहरु को विदेश विभाग का अध्यक्ष बना दिया गया था , लेकिन राष्ट्रीय आन्दोलन की व्यस्तता के कारण नेहरु जी भारत के लिए स्वतन्त्र विदेश नीति नहीं दे सके । आगे चलकर ही उन्होंने भारत की विदेश नीति का प्रारूप तैयार किया ताकि स्वतन्त्र भारत के अन्दर उसे लागू किया जा सके । स्वतन्त्रता के बाद नेहरु जी ने स्पष्ट किया कि भारत अमेरिका , ब्रिटेन तथा सोवियत संघ के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध कायम रखेगा । नेहरु जी ने स्वतन्त्र भारत की विदेश नीति पर 7 सितम्बर 1947 को राष्ट्र के नाम सन्देश देते समय कहा कि " हमारा विचार प्रगतिशील तरीके से कार्य करने का है जिनसे हम अपने आंतरिक मामलों और विदेशी सम्बन्धों में कार्य करने की स्वतन्त्रता प्राप्त कर सकें । हमारा विश्वास है कि शक्ति और स्वतन्त्रता अविभाज्य है और यदि कहीं भी किसी को स्वतन्त्रता से वंचित किया जाता है तो उससे कहीं अन्यत्र स्वतन्त्रता को खतरा उत्पन्न होता है जिसके कारण युद्ध और संघर्ष उत्पन्न होता है हम विशेष रूप से उपनिवेशी और पराधीन देशों कसे स्वतन्त्र देखने के इच्छुक हैं और सभी जातियों के लिये सिद्धान्त व व्यवहार में समान अवसरों को मान्यता देना चाहते हैं ।
हम किसी पर प्रभुत्व नहीं चाहते और हम अन्य लोगों पर कोई विशेषाधिकार पूर्ण स्थिति का दावा नहीं करते हैं । लेकिन हम इस बात का अवश्य दावा करते हैं कि हमारे लोगों के साथ समान और सम्मानजनक व्यवहार हो । चाहे वे कहीं भी जायें , उनके विरुद्ध किसी तरह का भेदभाव न हो । " राष्ट्रीय आन्दोलन के समय ही नेहरु जी की अंग्रेजी सरकार की नीतियों के प्रति असम्बद्धता ने अपना उग्र रूप ले लिया था । अन्तरिम सरकार के प्रधानमन्त्री की हैसियत से उन्होंने 1946 में ही भारत की विदेश नीति के अन्तर्गत स्थान पा गए और आज भी हैं । इन उद्देश्यों में स्वतन्त्र विदेश नीति , अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति का समर्थन , उपनिवेशवाद व साम्राज्यवाद का विरोध , रंगभेद की नीति की निन्दा , पराधीन देशों की स्वतन्त्रता का समर्थन , पड़ोसी देशों से मधुर सम्बन्ध , प्रवासी भारतीयों की विदेशों में सुरक्षा आदि शामिल हैं । आगे चलकर शीत युद्ध की परिस्थितियों को देखते हुए नेहरू ने असंलग्नता की नीति को ही भारत की विदेश नीति का आधार बनाया । उसने घोषणा की कि भारत किसी गुट में शामिल न होकर ही विश्व शान्ति के लिए प्रयास करेगा । " नेहरु ने यह भी स्पष्ट किया कि भारत की गुटनिरपेक्षता तटस्थ नहीं है । यह अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं के प्रति सचेत रहने की है । अमेरिकन सीनेट में भाषण देते हुए नेहरु जी ने कहा था- " जहाँ स्वतन्त्रता के लिए खतरा उपस्थित हो , न्याय को धमकी दी जाती हो अथवा जहाँ आक्रमण होता है , वहाँ न तो हम तटस्थ रह सकते हैं और न ही रहेंगे । " नेहरु जी की इसी नीति ने भारत को अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर सम्मान दिलाया । नेहरु जी ने अपनी विदेश नीति में राष्ट्रीय हित के उद्देश्य को सर्वोपरि स्थान दिया ।
 4 दिसम्बर 1947 में उन्होंने संविधान सभा में कहा कि " हो सकता है कि हम शान्ति और स्वतन्त्रता की ही बात करें और जो हम कहें उसे दढ़ संकल्प होकर लागू करना भी चाहें । परन्तु अन्ततोगत्वा , सरकार उस देश के हित में ही कार्य करेगी जिस पर वह शासन करती है और कोई भी सरकार ऐसा कार्य नहीं कर सकती जो देश हित के विरुद्ध हो । " नेहरु जी ने राष्ट्रीय हित के साथ - साथ विश्व शान्ति के लिए शान्तिपूर्ण सह - अस्तित्व के सिद्धान्त का अपने पंचशील सिद्धान्त में प्रतिपादन किया । नेहरु जी ने कहा कि हमारी नीति ऐसी परिस्थितियों को रोकने की होनी चाहिये जो विश्व शान्ति को खतरा उत्पन्न करे । इसी कारण भारत किसी सैनिक गुट में शामिल नहीं हुआ । विश्व शान्ति के लिए ही नेहरु जी ने निःशस्त्रीकरण का समर्थन करते हुए उसे भारत की विदेश नीति में जगह दी । विश्व शान्ति के लिए नेहरु जी ने उन सभी देशों की स्वतन्त्रता का समर्थन किया जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अपनी स्वतन्त्रता के लिए लड़ रहे थे ।

निष्कर्ष
यह यद्यपि नेहरु जी ने विदेशों के साथ अच्छे समन्वय स्थापित करने की नीति अपनाई । उसने अपने पड़ोसी देशों के साथ भी मधुर सम्बन्ध स्थापित किए । उसने विश्वशान्ति के लिए संयुक्त संघ का समर्थन किया और निरस्त्रीकरण के विचार पर भी विश्व ध्यान आकर्षित किया । उसने शीत युद्ध के वातावरण में अपना गुटनिरपेक्षता का सिद्धान्त तथा पंचशील का सिद्धान्त पेश करके विश्व शान्ति का आधार मजबूत किया । इतना होने के भी 1962 में चीनी आक्रमण के समय नेहरु की विदेश नीति का आदर्शयादिता कपोल कल्पना साबित हुई और विदेश नीति के समीक्षकों ने भारत की आलोचना शुरु कर दी उनका तर्क था कि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में शान्तिपूर्ण सह - अस्तित्व का विचार और युद्ध दो परस्पर विरोधी बातें हैं । राष्ट्रीय हित की प्राप्ति केवल शान्तिपूर्ण ढंग से ही नही सकती , बल्कि युद्ध जैसे अमानवीय साधनों का भी सहारा लेना पड़ता है । नेहरु की विदेश नीति की समीक्षा करते हुए जे ० बंधोपाध्याय ने लिखा है . " नेहरु की विदेश नीति यथार्थवाद की बजाय आदर्शवाद पर अधिक जोर देती है " आलोचकों का कहना है कि चीनी आक्रमण बाद नेहरु की गुटनिरपेक्षता की नीति धराशायी हो चुकी है । चीनी आक्रमण के बाद भारत झुकाव साम्यवादी गुट की तरफ बढ़ने से गुटनिरपेक्षता की कोई प्रासंगिकता नहीं हो सकती दूसरी बात यह भी कही गई कि गुट निरपेक्षता आक्रमण के विरुद्ध कोई गारन्टी नहीं देती लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि नहेरु जी की विदेश नीति का भारत की विदेश नीति निर्माण विकास में कोई योगदान नहीं है । सत्य तो यह है कि भारत की विदेश नीति आज भी उन उद्देश्यों व सिद्धान्तों को समेटे हुए है जो नेहरु की विदेश नीति में थे । इसलिए नेहरु की विदेश नीति को अप्रासंगिक कोरी आदर्शवादी मानना सर्वथा गलत हैं।

विगत कुछ वर्षों में खासकर 21 वी शताब्दी मे भारत की विदेश नीति परिवर्तन के दौर से गुज़र रही है। इसी वर्ष दिल्ली में आयोजित रायसीना डायलॉग में भारत के विदेश सचिव ने कहा था कि “भारत गुटनिरपेक्षता के अतीत से बाहर निकल चुका है और आज अपने हितों को देखते हुए दुनिया के अन्य देशों के साथ रिश्ते बना रहा है।” ध्यातव्य है कि वर्तमान में भारत, विश्व के लगभग सभी मंचों पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है और अधिकांश बहुपक्षीय संस्थानों में उसकी स्थिति मज़बूत हो रही है। 
भारत की वर्तमान विदेश नीति की सबसे खास विशेषता यह है कि इसमें पूर्व की सभी नीतियों की अपेक्षा जोखिम लेने की प्रवृत्ति सबसे अधिक है।
भारत अपनी दशकों पुरानी सुरक्षात्मक नीति को बदलते हुए कुछ हद तक आक्रामक नीति की ओर अग्रसर हो रहा है।
डोकलाम में भारत की कार्रवाई और वर्ष 2016 में उरी आतंकी हमलों के बाद पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक भारतीय नीति के प्रमुख उदाहरण हैं।
कई जानकारों का मानना है कि भारत की वर्तमान विदेश नीति में विचारों और कार्रवाई की स्पष्टता दिखाई देती है।
बदलते वैश्विक राजनीतिक परिवेश में भारत अपने आर्थिक और राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिये किसी भी औपचारिक समूह पर निर्भरता को सीमित कर रहा है।
भारत ने अपनी विदेश नीति में संतुलन बनाए रखने का एक महत्त्वपूर्ण कार्य किया है और अमेरिका तथा रूस के साथ भारत के संबंध इस तथ्य के प्रमुख उदाहरण हैं।



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